ॐ सांई राम
कल हमने पढ़ा था.. मिस्टर थॉमस नतमस्तक हुए
श्री साईं लीलाएं
ब्रह्म ज्ञान पाने का सच्चा अधिकारी
साईं बाबा की प्रसिद्धि अब बहुत दूर-दूर तक फैल गयी थी| शिरडी से बाहर दूर-दूर के लोग भी उनके चमत्कार के विषय में जानकर प्रभावित हुए बिना न रह सके| वह साईं बाबा के चमत्कारों के बारे में जानकर श्रद्धा से नतमस्तक हो उठते थे|एक पंडितजी को छोड़कर शिरडी में उनका दूसरा कोई विरोधी एवं उनके प्रति अपने मन में ईर्ष्या रखने वाला न था| बाबा के पास अब हर समय भक्तों का जमघट लगा रहता था| वह अपने भक्तों को सभी से प्रेम करने के लिए कहते थे|इतनी प्रसिद्धि फैल जाने के बाद भी बाबा का जीवन अब भी पहले जैसा ही था| वह भिक्षा मांगकर ही अपना पेट भरते थे| रुपयों-पैसों को वह बिल्कुल भी हाथ न लगाते थे| श्रद्धालु भक्त अपनी श्रद्धा से जो कुछ दे जाया करते थे, उनके शिष्य उनका उपयोग मस्जिद बनाने और गरीबों की सहायता करने में किया करते थे|मस्जिद के एक कोने में बाबा की धूनी सदा रमी रहती थी| उसमें हमेशा आग जलती रहती थी और साईं बाबा अपनी धूनी के पास बैठे रहा करते थे| बाबा जमीन पर सोया करते थे| बाबा सदैव कुर्ता, धोती और सिर पर अंगोछा बांधे रहते थे और नंगे पैर रहते थे, यही उनकी वेशभूषा थी|अहमदाबाद में एक गुजराती सेठ थे, उनके पास बहुत सारी धन-सम्पत्ति थी| सभी तरह से वह सम्पन्न थे| साईं बाबा की प्रसिद्धि सुनकर उनके मन में भी बाबा से मिलने की इच्छा पैदा हुई|बाबा से मिलने के पीछे उनके दिल में एक ही वंशा थी - वह मन-ही-मन सोचते, सांसारिक सुखों की तो सभी वस्तुएं मेरे पास मौजूद हैं, क्यों न कुछ आध्यात्मिक ज्ञान भी प्राप्त कर लिया जाये, जिससे स्वर्ग की प्राप्ति हो| वह अपना परलोक भी सुधार लेना चाहते थे| इसलिए साईं बाबा से मिलने को अत्यंत उत्सुक थे| इसी दौरान एक साधु उसके पास आये| यह भी साईं बाबा के भक्त थे| उन्होंने भी उस सेठ को बताया| यह सुनकर साईं बाबा से मिलने की इच्छा और भी तीव्र हो गयी| उन्होंने साईं बाबा से मिलने का निश्चय किया और शिरडी के लिए रवाना हो गये|जिस दिन वह शिरडी आये, उस दिन बृहस्पतिवार का दिन था, बाबा के प्रसाद का दिन| सेठ की सवारी जब द्वारिकामाई मस्जिद के पास आकर रुकी, उस समय लोगों की वहां पर अपार भीड़ जमा थी|बृहस्पतिवार को शिरडी गांव के ही नहीं, बल्कि दूर-दूर के अनेक गांव के लोग भी साईं बाबा की शोभायात्रा में शामिल होने के लिए द्वारिकामाई मस्जिद आते थे| बाबा की शोभायात्रा निकाली जाती थी| जो द्वारिकामाई मस्जिद से चावड़ी तक जाती थी| साईं बाबा के भक्त झांझ, मदृंग, ढोल, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाते, भक्ति गीत तथा कीर्तन गाते हुए सबसे आगे-आगे चलते थे| इस जलूस में महिलाएं भी बड़ी संख्या में शामिल हुआ करती थीं| उनके पीछे दर्जनों सजी हुई पालकियां होती थीं और सबसे आखिर में विशेष रूप से एक सजी हुई पालकी होती थी, जिसमें साईं बाबा बैठते थे| बाबा के शिष्य पालकी को अपने कंधों पर उठाकर चलते थे| पालकी के दोनों ओर जलती हुई मशालें लेकर मशालची चला करते थे|जुलूस के आगे-आगे आतिशबाजी छोड़ी जाती थी| सारा गांव साईं बाबा की जय, भजन तथा कीर्तन की मधुर ध्वनि से गुंजायमान हो उठता था| चावड़ी तक यह जुलूस जाकर फिर इसी तरह से द्वारिकामाई मस्जिद की ओर लौट आता था| जब पालकी मस्जिद के सामने पहुंच जाती थी, मस्जिद की सीढ़ियों पर खड़ा हुआ शिष्य बाबा के आगमन की घोषणा करता था| बाबा के सिर पर छत्र तान दिया जाता था| मस्जिद की सीढ़ियों पर दोनों ओर खड़े लोग चँवर डुलाने लगते थे| रास्ते में फूल, गुलाल और कुमकुम आदि बरसाये जाते थे|साईं बाबा हाथ उठाकर वहां एकत्रित भीड़ को अपना आशीर्वाद देते हुए धीरे-धीरे चलते हुए अपनी धूनी पर पहुंच जाते थे| सारे रास्ते भर 'साईं बाबा की जय' का नारा गूंजा करता था| जुलूस के दिन शिरडी के गांव की शोभा देखते ही बनती थी| हिन्दू-मुसलमान सभी मिलकर साईं बाबा का गुणगान करते थे|साईं बाबा की शोभायात्रा को देखकर गुजराती सेठ चकित रह गया| वह बाबा के पीछे-पीछे चलते हुए अन्य भक्तों के साथ चलते हुए बाबा की धूनी तक आ गया|उन्होंने बाबा के चेहरे की ओर देखा| कुछ देर पहले ही बाबा का जुलूस राजसी शानो-शौकत से निकाला गया था, लेकिन बाबा के चेहरे पर किसी प्रकार के अहंकार या गर्व की झलक तक नहीं थी| उनके चेहरे पर सदा की तरह शिशु जैसा भोलापन छाया हुआ था| गुजराती सेठ साईं बाबा के चरणों में झुक गया| बाबा ने उन्हें बड़े स्नेह से उठाकर अपने पास बैठा लिया|गुजराती सेठ ने हाथ जोड़कर कातर स्वर में कहा - "बाबा ! परमात्मा की कृपा से मेरे पास सब कुछ है| धन-सम्पति, जायदाद, संतान सब कुछ है| संसार के सभी मुझे प्राप्त हैं| आपके आशीर्वाद से मुझे किसी प्रकार का अभाव नहीं है|"सेठ की बात सुनने के बाद बाबा ने हँसते हुए कहा - "फिर आप मेरे पास क्या लेने आए हैं ?"
"बाबा, मेरा मन सांसारिक सुखों से ऊब गया है| मैंने धनोपार्जन करके अपने इस लोक को सुखी बना दिया है| अब मैं आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर अपना परलोक भी सुधार लेना चाहता हूं|"
"सेठजी, आपके विचार बहुत सुंदर हैं| मेरे पास जो कोई भी आता है, मैं यथासंभव उसकी मदद करता हूं|"साईं बाबा की बात सुनकर सेठ को अत्यंत प्रसन्नता हुई| उसे विश्वास हो चला था कि साईं बाबा उसे अवश्य ही ज्ञान प्रदान करेंगे| जिस विश्वास को लेकर वह यहां आया है, वह अवश्य ही यहां पर पूरा होगा| वहां का वातावरण देखकर वह और प्रसन्न हो गया था|गुजराती सेठ बेफिक्र हो गया था उसे पूरा-पूरा विश्वास हो गया था कि उसका उद्देश्य पूरा हो जाएगा|अचानक साईं बाबा ने अपने एक शिष्य को अपने पास बुलाया और उससे बोले - " एक छोटा-सा काम कर दो| अभी जाकर धनजी सेठ से सौ रुपये मांग लाओ|"वह शिष्य हैरानी से साईं बाबा के मुख की ओर देखता रह गया| बाबा को शिरडी में आए हुए इतने वर्ष बीत गए थे, लेकिन उन्होंने आज तक कभी पैसे को हाथ भी न लगाया था| भक्त और शिष्य उन्हें जो कुछ भेंट दे जाते थे, वह सब उनके दूसरे प्रमुख शिष्यों के पास ही रहता था| उनके आसन के नीचे पांच-दस रुपये अवश्य रख दिये जाते थे| वह इसलिए कि यदि बाबा प्रसन्न होकर अपने भक्त को कुछ देना चाहें, तो दे दें| बाबा जब कभी-कभार किसी भक्त पर प्रसन्न होते थे, तो अपने आसन के नीचे से निकालकर दो-चार रुपये दे दिया करते थे| आज बाबा को अचानक इतने रुपयों की क्या आवश्यकता पड़ गयी ? शिष्य इसी सोच में डूबा हुआ धनजी सेठ के पास चला गया|कुछ देर बाद उसने लौटकर बताया कि धनजी सेठ तो पिछले दो दिन से बम्बई (मुम्बई) गए हुए हैं|
"कोई बात नहीं| तुम बड़े भाई के पास चले जाओ| वह तुम्हें सौ रुपये दे देंगे|"हैरान-परेशान-सा वह फिर से चला गया|तभी बृहस्पतिवार को होने सामूहिक भोजन का कार्यक्रम शुरू हो गया| उस दिन जितने भी लोग शोभायात्रा में शामिल हुआ करते थे वह सभी मस्जिद में ही खाना खाया करते थे| जात-पात, ऊंच-नीच छुआ-छूत की भावना का त्याग करके सभी लोग एक साथ बैठकर बाबा के भंडारे का प्रसाद पूरी श्रद्धा के साथ ग्रहण किया करते थे|साईं बाबा ने उस गुजराती सेठ से कहा - "सेठजी, आप भी प्रसाद ग्रहण कीजिए|"
"मैं तो भोजन कर चूका हूं बाबा ! खाने की मेरी इच्छा नहीं है| आप मुझे ज्ञान दीजिए| मेरे लिए यही आपका सबसे बड़ा प्रसाद होगा|" सेठ ने हाथ जोड़कर कहा|तभी शिष्य सेठ की दूकान से वापस लौट आया| उसने बताया कि सेठ का भाई भी अपने किसी संबंधी के यहां गया हुआ है| दो-तीन दिन बाद लौटेगा|
"कोई बात नहीं, तुम जाओ|" साईं बाबा ने एक लंबी सांस लेकर कहा|शिष्य की परेशानी की कोई सीमा न थी| उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि साईं बाबा को अचानक इतने रुपयों की क्या आवश्यकता पड़ गयी ? साईं बाबा उठकर मस्जिद के चबूतरे के पास चले गए| जहां शोभायात्रा से आए हुए लोग प्रसाद ग्रहण कर रहे थे|बाबा चबूतरे के पास ही एक टूटी दीवार पर जा बैठे और अपने शिष्यों तथा भक्तों को देखने लगे| इस समय उनके चेहरे पर ठीक वैसी ही प्रसन्नता के भाव थे, जैसे किसी पिता के चेहरे पर उस समय होते हैं, जब वह अपनी संतान को भोजन करते हुए देखता है| गुजराती सेठ साईं बाबा के पास खड़ा कार्यक्रम को देखता रहा| कुछ देर बाद जब बाबा अपने आसन पर आकर बैठ गए तो गुजराती सेठ ने फिर से अपनी प्रार्थना दोहरायी|बाबा इस बात पर खिलखिलाकर हँस पड़े| हँसने के बाद उन्होंने गुजराती सेठ की ओर देखते हुए पूछा - "सेठजी, क्या आपने यह सोचा है कि आप ज्ञान प्राप्त करने के योग्य हैं भी अथवा नहीं ?"
"मैं कुछ समझा नहीं|" सेठ बोला|
"देखो सेठजी ! ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी वह व्यक्ति होता है, जिसके मन में कोई मोह न हो| सांसारिक विषय वस्तुओं के लिए लालसा न हो, त्याग की भावना हो और जो संसार के प्रत्येक प्राणी को चाहे वह मनुष्य हो, पशु हो या कीट-पतंग सभी को अपने समान समझकर समान भाव से प्यार करता हो|"
"आप बिल्कुल ठीक कहते हैं|" गुजराती सेठ बोला|
"नहीं सेठ, तुम झूठ बोलते हो| तुम्हारे मन में सारी बुराइयां अभी भी मौजूद हैं| यदि तुम्हारे मन में धन के प्रति आसक्ति न होती और कुछ त्याग की भावना होती, तो जब मैंने अपने शिष्य को दो बार रुपये लाने के लिए भेजा था और वह दोनों बार खाली हाथ लौटकर आया था, तब तुम अपनी जेब से भी निकालकर रुपये दे सकते थे| जबकि तुम्हारी जेब में सौ-सौ के नोट रखे हुए थे| पर तुमने यह सोचा कि मैं सौ रुपये बाबा को मुफ्त में क्यों दूं ? मैंने तुमसे भण्डारे में प्रसाद ग्रहण करने के लिए कहा, तो तुमने प्रसाद ग्रहण करने से तुरंत इंकार कर दिया, क्योंकि वहां सभी जातियों और धर्मों के लोग एक साथ बैठकर प्रसाद ग्रहण कर रहे थे| इसलिए तुम किसी भी दशा में ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के अधिकारी नहीं हो|जिस व्यक्ति के मन में लोभ नहीं होता है, जिसकी दृष्टि में समभाव होता है, उसे स्वयं ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है| तुम ज्ञान पाने के अधिकारी तभी हो सकते हो, जब तुम में यह बातें पैदा हो जायेंगी|"गुजराती सेठ को ऐसा लगा जैसे बाबा ने उसकी आत्मा को झिंझोड़कर रख दिया हो| उसका चेहरा उतर गया|साईं बाबा ने सेठ को वापस चले जाने के लिए कह दिया| वह चुपचाप उठा और बाबा के चरण स्पर्श करके वापस चल दिया| उसके पास अब कहने को कुछ नहीं बचा था|
कल चर्चा करेंगे... तात्या को बाबा का आशीर्वाद
"बाबा, मेरा मन सांसारिक सुखों से ऊब गया है| मैंने धनोपार्जन करके अपने इस लोक को सुखी बना दिया है| अब मैं आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर अपना परलोक भी सुधार लेना चाहता हूं|"
"सेठजी, आपके विचार बहुत सुंदर हैं| मेरे पास जो कोई भी आता है, मैं यथासंभव उसकी मदद करता हूं|"साईं बाबा की बात सुनकर सेठ को अत्यंत प्रसन्नता हुई| उसे विश्वास हो चला था कि साईं बाबा उसे अवश्य ही ज्ञान प्रदान करेंगे| जिस विश्वास को लेकर वह यहां आया है, वह अवश्य ही यहां पर पूरा होगा| वहां का वातावरण देखकर वह और प्रसन्न हो गया था|गुजराती सेठ बेफिक्र हो गया था उसे पूरा-पूरा विश्वास हो गया था कि उसका उद्देश्य पूरा हो जाएगा|अचानक साईं बाबा ने अपने एक शिष्य को अपने पास बुलाया और उससे बोले - " एक छोटा-सा काम कर दो| अभी जाकर धनजी सेठ से सौ रुपये मांग लाओ|"वह शिष्य हैरानी से साईं बाबा के मुख की ओर देखता रह गया| बाबा को शिरडी में आए हुए इतने वर्ष बीत गए थे, लेकिन उन्होंने आज तक कभी पैसे को हाथ भी न लगाया था| भक्त और शिष्य उन्हें जो कुछ भेंट दे जाते थे, वह सब उनके दूसरे प्रमुख शिष्यों के पास ही रहता था| उनके आसन के नीचे पांच-दस रुपये अवश्य रख दिये जाते थे| वह इसलिए कि यदि बाबा प्रसन्न होकर अपने भक्त को कुछ देना चाहें, तो दे दें| बाबा जब कभी-कभार किसी भक्त पर प्रसन्न होते थे, तो अपने आसन के नीचे से निकालकर दो-चार रुपये दे दिया करते थे| आज बाबा को अचानक इतने रुपयों की क्या आवश्यकता पड़ गयी ? शिष्य इसी सोच में डूबा हुआ धनजी सेठ के पास चला गया|कुछ देर बाद उसने लौटकर बताया कि धनजी सेठ तो पिछले दो दिन से बम्बई (मुम्बई) गए हुए हैं|
"कोई बात नहीं| तुम बड़े भाई के पास चले जाओ| वह तुम्हें सौ रुपये दे देंगे|"हैरान-परेशान-सा वह फिर से चला गया|तभी बृहस्पतिवार को होने सामूहिक भोजन का कार्यक्रम शुरू हो गया| उस दिन जितने भी लोग शोभायात्रा में शामिल हुआ करते थे वह सभी मस्जिद में ही खाना खाया करते थे| जात-पात, ऊंच-नीच छुआ-छूत की भावना का त्याग करके सभी लोग एक साथ बैठकर बाबा के भंडारे का प्रसाद पूरी श्रद्धा के साथ ग्रहण किया करते थे|साईं बाबा ने उस गुजराती सेठ से कहा - "सेठजी, आप भी प्रसाद ग्रहण कीजिए|"
"मैं तो भोजन कर चूका हूं बाबा ! खाने की मेरी इच्छा नहीं है| आप मुझे ज्ञान दीजिए| मेरे लिए यही आपका सबसे बड़ा प्रसाद होगा|" सेठ ने हाथ जोड़कर कहा|तभी शिष्य सेठ की दूकान से वापस लौट आया| उसने बताया कि सेठ का भाई भी अपने किसी संबंधी के यहां गया हुआ है| दो-तीन दिन बाद लौटेगा|
"कोई बात नहीं, तुम जाओ|" साईं बाबा ने एक लंबी सांस लेकर कहा|शिष्य की परेशानी की कोई सीमा न थी| उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि साईं बाबा को अचानक इतने रुपयों की क्या आवश्यकता पड़ गयी ? साईं बाबा उठकर मस्जिद के चबूतरे के पास चले गए| जहां शोभायात्रा से आए हुए लोग प्रसाद ग्रहण कर रहे थे|बाबा चबूतरे के पास ही एक टूटी दीवार पर जा बैठे और अपने शिष्यों तथा भक्तों को देखने लगे| इस समय उनके चेहरे पर ठीक वैसी ही प्रसन्नता के भाव थे, जैसे किसी पिता के चेहरे पर उस समय होते हैं, जब वह अपनी संतान को भोजन करते हुए देखता है| गुजराती सेठ साईं बाबा के पास खड़ा कार्यक्रम को देखता रहा| कुछ देर बाद जब बाबा अपने आसन पर आकर बैठ गए तो गुजराती सेठ ने फिर से अपनी प्रार्थना दोहरायी|बाबा इस बात पर खिलखिलाकर हँस पड़े| हँसने के बाद उन्होंने गुजराती सेठ की ओर देखते हुए पूछा - "सेठजी, क्या आपने यह सोचा है कि आप ज्ञान प्राप्त करने के योग्य हैं भी अथवा नहीं ?"
"मैं कुछ समझा नहीं|" सेठ बोला|
"देखो सेठजी ! ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी वह व्यक्ति होता है, जिसके मन में कोई मोह न हो| सांसारिक विषय वस्तुओं के लिए लालसा न हो, त्याग की भावना हो और जो संसार के प्रत्येक प्राणी को चाहे वह मनुष्य हो, पशु हो या कीट-पतंग सभी को अपने समान समझकर समान भाव से प्यार करता हो|"
"आप बिल्कुल ठीक कहते हैं|" गुजराती सेठ बोला|
"नहीं सेठ, तुम झूठ बोलते हो| तुम्हारे मन में सारी बुराइयां अभी भी मौजूद हैं| यदि तुम्हारे मन में धन के प्रति आसक्ति न होती और कुछ त्याग की भावना होती, तो जब मैंने अपने शिष्य को दो बार रुपये लाने के लिए भेजा था और वह दोनों बार खाली हाथ लौटकर आया था, तब तुम अपनी जेब से भी निकालकर रुपये दे सकते थे| जबकि तुम्हारी जेब में सौ-सौ के नोट रखे हुए थे| पर तुमने यह सोचा कि मैं सौ रुपये बाबा को मुफ्त में क्यों दूं ? मैंने तुमसे भण्डारे में प्रसाद ग्रहण करने के लिए कहा, तो तुमने प्रसाद ग्रहण करने से तुरंत इंकार कर दिया, क्योंकि वहां सभी जातियों और धर्मों के लोग एक साथ बैठकर प्रसाद ग्रहण कर रहे थे| इसलिए तुम किसी भी दशा में ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के अधिकारी नहीं हो|जिस व्यक्ति के मन में लोभ नहीं होता है, जिसकी दृष्टि में समभाव होता है, उसे स्वयं ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है| तुम ज्ञान पाने के अधिकारी तभी हो सकते हो, जब तुम में यह बातें पैदा हो जायेंगी|"गुजराती सेठ को ऐसा लगा जैसे बाबा ने उसकी आत्मा को झिंझोड़कर रख दिया हो| उसका चेहरा उतर गया|साईं बाबा ने सेठ को वापस चले जाने के लिए कह दिया| वह चुपचाप उठा और बाबा के चरण स्पर्श करके वापस चल दिया| उसके पास अब कहने को कुछ नहीं बचा था|
कल चर्चा करेंगे... तात्या को बाबा का आशीर्वाद
ॐ सांई राम
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
No comments:
Post a Comment