You are visitor No.

शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण... अधिक जानने के लियें पूरा पेज अवश्य देखें

शिर्डी से सीधा प्रसारण ,... "श्री साँई बाबा संस्थान, शिर्डी " ... के सौजन्य से... सीधे प्रसारण का समय ... प्रात: काल 4:00 बजे से रात्री 11:15 बजे तक ... सीधे प्रसारण का इस ब्लॉग पर प्रसारण केवल उन्ही साँई भक्तो को ध्यान में रख कर किया जा रहा है जो किसी कारणवश बाबा जी के दर्शन नहीं कर पाते है और वह भक्त उससे अछूता भी नहीं रहना चाहते,... हम इसे अपने ब्लॉग पर किसी व्यव्सायिक मकसद से प्रदर्शित नहीं कर रहे है। ...ॐ साँई राम जी...

Thursday, 31 October 2013

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 48

ॐ सांई राम



आप सभी को साँई रसोईं छत्तरपुर की ओर साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम  घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...



श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 48 - भक्तों के संकट निवारण

---------------------------------------

1. शेवड़े और
2. सपटणेकर की कथाएँ ।
अध्याय के प्रारम्भ करने से पूर्व किसी ने हेमाडपंत से प्रश्न किया कि साईबाबा गुरु थे या सदगुरु । इसके उत्तर में हेमाडपंत सदगुरु के लक्षणों का निम्नप्रकार वर्णन करते है ।

Wednesday, 30 October 2013

बाबा सुन्दर दास जी

ॐ श्री साँई राम जी


बाबा सुन्दर दास जी

जब कोई प्राणी परलोक सिधारता है तो उसके नमित रखे 'श्री गुरु ग्रंथ साहिब' के पाठ का भोग डालने के पश्चात 'रामकली राग की सद्द' का भी पाठ किया जाता है| गुरु-मर्यादा में यह मर्यादा बन गई है| यह सद्द बाबा सुन्दर दास जी की रचना है| सतिगुरु अमरदास जी महाराज जी के ज्योति जोत समाने के समय का वैराग और करुण दृश्य पेश किया गया है|

सद्द का उच्चारण करने वाले गुरमुख प्यारे, गुरु घर के श्रद्धालु बाबा सुन्दर दास जी थे| आप सीस राम जी के सपुत्र और सतिगुरु अमरदास जी के पड़पोते थे| आप ने गोइंदवाल में बहुत भक्ति की, गुरु का यश करते रहे|

बाबा सुन्दर दास जी का मेल सतिगुरु अर्जुन देव जी महाराज से उस समय हुआ, जब सतिगुरु जी बाबा मोहन जी से गुरुबाणी की पोथियां प्राप्त करने के लिए गोइंदवाल पहुंचे थे| उनके साथ बाबा बुड्ढा जी और अन्य श्रद्धालु सिक्ख भी थे| उस समय बाबा सुन्दर दास जी ने वचन विलास में महाराज जी के आगे व्यक्त कर दिया कि उन्होंने एक 'सद्द' लिखी है| महाराज जी ने वह 'सद्द' सुनी| सुन कर इतने प्रसन्न हुए कि 'सद्द' उनसे लेकर अपने पास रख ली| जब 'श्री गुरु ग्रंथ साहिब' जी की बीड़ तैयार की तो भाई गुरदास जी से यह 'सद्द' भी लिखवा दी| उस सद्द के कारण बाबा सुन्दर दास जी भक्तों में गिने जाने लगे और अमर हो गए| जो भी सद्द को सुनता है या सद्द का पाठ करता है, उसके मन को शांति प्राप्त होती है| उसके जन्म मरण के बंधन कट जाते हैं| यह 'सद्द' कल्याण करने वाली बाणी है|

Tuesday, 29 October 2013

भाई तिलकू जी - जीवन परिचय

ॐ श्री साँई राम जी


भाई तिलकू जी

ऐसा जोगी वडभागी भेटै माइआ के बंधन काटै ||
सेवा पूज करउ तिसु मुरति की नानकु तिसु पग चाटै ||५||



गुरु अर्जुन देव जी महाराज फरमाते हैं कि योगी वहीं सच्चा योगी है तथा उसी को मिलो जो माया के बंधन काटे, जो बंधन काटने वाला है, ऐसे पुरुष अथवा ज्ञानी की सेवा तथा पूजा करने के अतिरिक्त उसके चरण भी छूने चाहिए| चरणों की पूजा करनी चाहिए| सतिगुरु जी बहुत आराधना करते हैं|

पर पाखण्डी योगी संत आदि जो केवल भेषधारी हैं उनके चरणों पर माथा टेकने से वर्जित किया है| आजकल भेष के पीछे बहुत लगते हैं सत्य को नहीं जानते| ऐसे सत्य को परखने तथा गुरमति पर चलने वाले भाई तिलकू जी हुए हैं जो एक महांपुरुष थे|

भाई तिलकू जी गढ़शंकर के वासी तथा पंचम पातशाह जी के सिक्ख थे| उनका नियम था कि रात-दिन, हर क्षण मूल मंत्र का पाठ करते रहते थे| कभी किसी को बुरा वचन नहीं कहते थे, सत्य के पैरोकार तथा कार्य-व्यवहार में परिपूर्ण थे| गुरु महाराज के बिना किसी के चरणों पर सिर नहीं झुकाते थे| नेक कमाई करके रोटी खाते थे| देना-लेना किसी का कुछ नहीं था, ऐसी उन पर वाहिगुरु की अपार कृपा थी|

गढ़शंकर में एक योगी रहता था| एक सौ दस साल की आयु हो जाने तथा घोर तपस्या करने पर भी उसके मन में से अहंकार नहीं निकला था, वह अभिमानी हो गया तथा अपनी प्रशंसा करवाता था| लोगों को पीछे लगा कर अपना यश सुनता|

उसने अपने जीवित रहते एक बहुत बड़ा भंडारा किया| जब भंडारा तैयार हुआ तो उसने सारे नगर में तथा बाहर ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध, नवयुवक भंडारे में भोजन करेगा, उसको दो साल के लिए स्वर्ग हासिल होगा, उसको परमात्मा के दर्शन होंगे| 

उस योगी का यह संदेश सुनकर नगर के लोग बाल-बच्चों सहित पधारे तथा भंडारा लिया, योगी का यश किया| जब सभी ने भोजन कर लिया तो योगी ने अपने मुख्य शिष्य को कहा -

'पता करो कोई स्त्री-पुरुष भंडारे में आने से रह तो नहीं गया| यदि रह गया हो तो उसे भी बुलाओ|'

योगी का ऐसा हुक्म सुनकर उसके मुख्य शिष्य ने नगर में सेवक भेजे| उन्होंने पता किया तथा कहा-'महाराज! भाई तिलकू नहीं आया, शेष सब भोजन कर गए हैं| वह कहता है मुझे स्वर्ग की जरूरत नहीं, वह नहीं आता|'

योगी ने उसके पास दोबारा आदमी भेजे था कहा, उसे कहो कि तुम्हें दस साल के लिए स्वर्ग मिलेगा, आ जाओ| मेरा भंडारा सम्पूर्ण हो जाए| हुक्म सुनकर वे पुन: भाई तिलकू जी के पास गए, उसको दस साल स्वर्ग के बारे में बताया तो वह हंस पड़ा| इतने सस्ते में स्वर्ग जीवन देने वाले योगी के माथे लगना ही पाप है| मुझे स्वर्ग नहीं चाहिए| मेरे स्वर्ग मेरे जीवन को लेने-देने वाला मेरा सतिगुरु है, मैं तो उसकी पनाह में बैठा हूं| जाओ, योगी को बता दो|

शिष्य हार कर चले गए तथा योगी को जाकर बताया| योगी सुनकर आपे से बाहर हो गया और क्रोध से बोल उठा| उसने कहा-'मैं देखता हूं उसका गुरु कौन है? उसकी कितनी शक्ति है? अभी वह आएगा तथा पांव में पड़ेगा| तिलकू तिलक कर ही रहेगा|'

इस तरह बोलता हुआ योगी लाल-पीला हो गया तथा आसन से उठ बैठा| उसके हृदय में अहंकार तथा वैर भावना आ गई| वैर भावना ने योगी की सारी तपस्या तथा भक्ति को शून्य कर दिया| योगी को अपने योग बल पर बहुत अभिमान था| उसने समाधि लगाई| योग बल से भूत-प्रेत, बीर बुलाए तथा उनको आज्ञा की-'जाओ तिलकू को परेशान करो, वह मेरे भंडारे में आए|'

योगी का हुक्म सुनकर बीर तथा भूत-प्रेत भाई तिलकू के घर गए| पहले तो आंधी की तरह उसके घर के दरवाजे खुले तथा बंद हुए| धरती डगमगाई तथा भाई तिलकू जी के मुख से निकला-'सतिनाम सति करतार!' आंधी रुक गई| फिर भाई तिलकू जी मूल मंत्र का पाठ करने लग पड़ा| जैसे-जैसे वह पाठ करता गया वैसे-वैसे सारे खतरे दूर हो गए|

योगी के सारे भूत-प्रेत तथा बीर उसके पास गए| उन्होंने हाथ जोड़ कर बुरे हाल योगी के आगे विनती की-

हे मालिक! हमारी कोई पेश नहीं जाती| उसकी रक्षा हमसे ज्यादा कोई महान शक्तिशाली आदमी कर रहे हैं, उनसे तो थप्पड़ और धक्के लगते हैं| घुल-घुल कर हांफ कर आ गए हैं| वह तिलकू कोई कलाम पढ़ता जाता है| हम चले, हम सेवा नहीं कर सकते| यह कह कर सारी बुरी आत्माएं चली गईं| योगी की सुरति कायम न रह सकी| वह बुरी आत्माओं को काबू न रख सका, वह सारी चली गईं|

योगी ने निराश हो कर समाधि भंग की बैठा तथा भाई तिलकू के पास गया तथा उसके घर का दरवाजा खटखटाया| आवाज़ दी-'भाई तिलकू जी दरवाजा खोलो|' योगी आप के दर्शन करने आया है|'

यह सुन कर भाई तिलकू जी ने दरवाजा खोला तथा देखा योगी बाहर खड़ा था| उसके पीछे उसके शिष्य तथा कुछ शहर के लोग थे|

'भाई जी! यह बताओ आपका गुरु कौन है?' योगी ने पूछा|

भाई तिलकू जी-'मेरे गुरु, सतिगुरु नानक देव जी हैं| जिन्होंने पांचों चोरों को मारने की शिक्षा दी है|

योगी-'मंत्र कौन-सा पढ़ते हो?'

भाई तिलकू-'सति करतार १ ओ सतिनामु करता पुरखु......|' भाई जी ने मूल मंत्र का पाठ शुरू कर दिया| यह मंत्र ही कल्याणकारी है| आपकी तरह साल-दो साल मुक्ति नीलाम नहीं की जाती| यह आपकी गलती समझो| इसलिए मैं नहीं गया, मेरे गुरु ही भव-सागर से पार उतारते हैं|'

भाई तिलकू जी के वचनों का प्रभाव योगी के मन पर बहुत पड़ा तथा अंत में भाई तिलकू योगी को साथ लेकर सतिगुरु जी की हजूरी में पहुंचे| सतिगुरु जी ने योगी को उपदेश दे कर भक्ति भाव के सच्चे मार्ग की ओर लगाया|

Monday, 28 October 2013

भाई समुन्दा जी - जीवन परिचय

ॐ श्री साँई राम जी



भाई समुन्दा जी


अनदिनु सिमरहु तासु कऊ जो अंति सहाई होइ || इह बिखिआ 
दिन चारि छिअ छाडि चलिओ सभु कोइ || का को मात पिता
सुत धीआ || ग्रिह बनिता कछु संगि न लीआ || ऐसी संचि
जु बिनसत नाही || पति सेती अपुनै घरि जाही || साधसंगि कलि
कीरतनु गाइआ || नानक ते ते बहुरि न आइआ ||१५||

परमार्थ-उस परमात्मा का रात-दिन सिमरन करो जो कि अंत समय सहायक होता है| यह जो माया से पैदा की हुई खुशियां, विषय-विकार आदि हैं यह साथ नहीं जाते| ये तो थोड़े दिन के मेहमान हैं| मां, बाप, स्त्री, पुत्र, पुत्री यह भी साथ नहीं जाते| ऐसा धन इकट्ठा करना चाहिए जो साथ चले, वह है वाहिगुरु का सिमरन| वाहिगुरु के सिमरन के अतिरिक्त कोई शह साथ नहीं जाती| जिस पुरुष ने सत्संग में बैठ कर हरि कीर्तन गाया तथा वाहिगुरु का सिमरन किया है गुरु जी कहते हैं वह फिर जन्म मरण के चक्र में नहीं पड़ता| उसका जन्म मरण कट जाता है अत: वह मुक्त हो जाता है| ऐसे नाम सिमरन वाले गुरसिक्ख सेवकों में भाई समुन्दा गुरु के सिक्ख बने थे| सिक्ख बनने से पहले उनका जीवन मायावादी था| वे धन इकट्ठा करते, स्त्री से प्यार करते| स्त्री के लिए वस्त्र, आभूषण तथा खुशियों का सामान लाते| पुत्र, पुत्री से प्यार था| कभी किसी तीर्थ पर न जाते| परमात्मा है कि नहीं? यह प्रश्न उनके मन में उठता ही नहीं था, यदि कहीं चार छिलके गुम हो जाते तो उनकी आत्मा दुखी होती| वह दो-दो दिन रोटी न खाते| माया इकट्ठी करना ही उनके जीवन का लक्ष्य था| माया के बदले यदि कोई जान भी मांगता तो देने के लिए तैयार हो जाते|

एक दिन वह भूल से गुरमुखों की संगत में बैठ गए| एक ज्ञानी ने उपरोक्त शब्द पढ़ा तथा साथ ही शब्द की व्याख्या की| शब्द के अंदरुनी भाव ने भाई समुन्दा जी की आत्मा पर गहन प्रभाव डाला| उनकी बुद्धि जाग पड़ी| वह सोचने लगे कि जो कुछ मैं कर रहा हूं, यह अच्छा है या जो कुछ गुरमुख कहते है, वह अच्छा है? वह असमंजस में पड़ गए| उठ कर घर आ गए, रोटी खाने को मन नहीं किया| रात को सोए तो नींद नहीं आई| रात्रि के बारह बज गए पर नींद न आई| जहां पहले पहल रात को गहरी नींद सो जाते थे, अब सोच में डूब गए| माया इकट्ठी करना अच्छा है या नहीं? स्त्री, पुत्र, पुत्री का सम्बंध कहां तक है? उसकी आंखों के आगे कई झांकियां आईं| एक यह झांकी भी आई कि कोई मर गया है| उसके पुत्र, पुत्रवधू, पुत्री तथा पत्नी उसका दाह-संस्कार करके घर आ गए हैं| चार दिन के बाद उसका किसी ने नाम न लिया, वह भूल गया| समुन्दे को अपने माता-पिता भी याद आए वे उसके पास से चले गए| वे चार दिन के दुःख के बाद उन्हें भूल गए| वह विचारों में खोए रहने लगे| ऐसी ही विचारों में सोए उनको स्वप्न आया जो बहुत भयानक था| उन्होंने देखा-वह बीमार हो जाते हैं| बीमारी के समय उनके पुत्र, पत्नी तथा सम्बन्धी उनके पास आते हैं| पहले-पहल सभी उससे सहानुभूति तथा प्यार करते पर धीरे-धीरे जैसे जैसे बीमारी बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे सभी का प्यार घटता जाता है| अंतिम समय आ जाता है, यमदूत उसकी जान निकालने के लिए आते हैं, उनकी भयानक सूरतें देख कर वह भयभीत हो जाता है| पत्नी को कहता है, मेरी सहायता करो, मुझे यमों से बचाओ, पर वह आगे से रोती हुई न में सिर हिला देती है कि वह उसे बचा नहीं सकती, यम उसकी आत्मा को मारते-पीटते हुए धर्मराज के पास ले जाते हैं| धर्मराज कहता है, 'यह महां पापी है| इसने जीवन भर कभी भगवान का सिमरन नहीं किया, नेकी नहीं कमाई, इस महां पापी को आग के नरक में फैंको| जहां यह कई जन्म जलता रहेगा| फैंको! फैंको महां पापी है|' धर्मराज का यह हुक्म सुन कर यम उसको आग-नरक की तरफ खींच कर ले चले| जब नरक के निकट पहुंचे तो समुन्दे ने देखा-बहुत भयानक आग जल रही थी जिसका ताप दूर तक जाता था| निकट पहुंचने से पहले ही सब कुछ जल जाता था| समुन्दे ने देखा तथा सुना कि कई महां पापी उस नरक की भट्ठी में जल कर चिल्ला रहे हैं| समुन्दा-दहल गया, जब यम उसको उठा कर आग में फैंकने लगे तो उसकी चीख निकल गई, उस चीख के साथ ही उसकी नींद खुल गई वह तपक कर उठ बैठा, आंखें मल कर उसने देखा, वह नरकों में नहीं बल्कि अपने घर बैठा है| वह मरा नहीं जीवित है| पर उसका हृदय इतनी जोर से धड़क रहा था कि सांस आना भी मुश्किल हो रहा था, सारा शरीर पसीने से भीग गया|

समुन्दा जी चारपाई से उठ गए| अभी रात्रि थी, आकाश पर तारे हंस रहे थे| परिवार वाले तथा पड़ोसी सभी सो रहे थे| चारों तरफ खामोशी थी| उस खामोशी के अन्धेरे में समुन्द्रा जी घर से निकले| जिस तरह किसी के घर से चोर निकलता है, दबे पांव, धड़कते दिल, जल्दी-जल्दी समुन्दा जी उस स्थान पर पहुंचे जहां गुरमुख आए हुए थे, वह गुरमुख जाग रहे थे| पिछली रात समझ कर उठे थे तथा स्नान कर रहे थे| स्नान करके उन्होंने भगवान का भजन करना शुरू कर दिया| घबराए हुए समुन्दा जी उनके पास बैठे रहे, बैठे-बैठे दिन निकल गया, दिन उदय होने पर उन गुरमुखों के चरणों में गिर कर इस तरह बिलखने और विनती करने लगे, 'मुझे नरक का डर है| मैं कैसे बख्शा जाऊं| मुझे स्वर्ग का मार्ग बताओ! नरक की भयानक आग से बचाओ! संत जगत के रक्षक होते हैं| भूले-भटके का मार्गदर्शन करते हैं| मेरी पुकार भी कोई सुने| आप ही तो सब कुछ हो| सोई हुई आत्मा जाग पड़ी|'

वह गुरमुख श्री गुरु अर्जुन देव जी के सिक्ख थे| श्री हरिमंदिर साहिब के निर्माण के लिए नगरों में से सामान इकट्ठा कर रहे थे| उन्होंने भाई समुन्दा जी की विनती सुनी| उनको धैर्य दिया और कहा, 'भाई! सुबह हमारे साथ चलना वहां जगत के रक्षक गुरु जी हैं उनके दर्शन करके तभी उद्धार होगा|'

अगले दिन भाई समुन्दा जी सिक्खों के साथ 'चक्क रामदास' पहुंचे, आगे दीवान लगा हुआ था| गुरगद्दी पर विराजमान सतिगुरु जी सिक्खों को उपदेश कर रहे थे| समुन्दा जी भी जा कर चरणों पर गिर पड़े, रो कर विनती की, 'दाता दया कीजिए! मुझे भवसागर से पार होने का साधन बताओ| नरक की आग से मुझे डर लगता है, बहुत सारी आयु व्यर्थ गंवा दी| अच्छी तरह जीने का ढंग बताओ! हे दाता! दयालु तथा कृपालु सतिगुरु मुझ पर कृपा करो|

अंतर्यामी सतिगुरु जी ने देखा, समुन्दे की आत्मा पश्चाताप कर रही है| यह नेकी तथा धर्म के मार्ग पर चलने के लिए तैयार है| इस को गुरमति बख्शनी योग्य है| सतिगुरु जी ने फरमाया-'हे सिक्खा! तुम्हें वाहिगुरु ने इस संसार पर नाम सिमरन तथा लोक सेवा के लिए भेजा है, इसलिए उठकर वाहिगुरु का सिमरन करना, धर्म की कमाई करना, गुरुबाणी सुनना, निंदा चुगली से दूर रहना| यह जगत तुम्हारे लिए जीवन नहीं, बल्कि मार्ग का आसरा है| जीवन का मनोरथ है, प्रभु से जुदा हुए हो, उस के पास जाना तथा उसके साथ इस तरह घुल-मिल जाना जैसे पानी से पानी मिल जाता है| जैसे दो दीयों का प्रकाश एक लगता है| सच बोलना, गुरुद्वारे जाना तथा भूखे सिक्खों को भोजन खिलाना| यह है जीवन युक्ति|'

Sunday, 27 October 2013

साधू रणीया जी - जीवन परिचय्

ॐ श्री साँई राम जी


साधू रणीया जी

जहां सरोवर रामसर है, सतिगुरु हरिगोबिंद साहिब जी के समय एक साधू शरीर पर राख मल कर वृक्ष के नीचे बैठा हुआ शिवलिंग की पूजा कर रहा था| वह घण्टियां बजाए जाता तथा जंगली फूल अर्पण करता था, वह कोई पक्का शिव भक्त था|

जब वह शिवलिंग की पूजा में मग्न था तो अचानक उसके कानो में यह शब्द गूंजे 'ओ गुरमुखा! एक चोरी छोड़ी, दूसरा पाखण्ड शुरू किया| कुमार्ग से फिर कुमार्ग मार्ग पर चलना ठीक नहीं|'

यह वचन सुनकर उसने आंखें ऊपर उठा कर देखा तो सतिगुरु हरिगोबिंद साहिब जी घोड़े पर सवार उसके सामने खड़े हुए मुस्करा रहे थे| जैसे कि कभी उसने दर्शन किए थे| कोई बादशाह समझा था| जीवन की घटना उसको फिर याद आने लगी|

वह साधू उठ कर खड़ा हो गया, हाथ जोड़ कर विनती की, 'महाराज! आप के हुक्म से चोरी और डकैती छोड़ दी| साधू बन गया, और बताएं क्या करुं?'

उसकी विनती सुनकर मीरी-पीरी के मालिक ने फरमाया-'हे गुरमुख! पत्थर की पूजा मत करना-आत्मा को समझो| उसकी पूजा करो, उसका नाम सिमरन करो, जिसने शिव जी, ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं की सृजना की है| करतार का नाम सिमरन करो, सत्संगत में बैठो, सेवा करो, यह जन्म बहुत बहुमूल्य है|'

"कबीर मानस जनमु दुलंभु है होइ न बारै बार ||"

इस तरह वचन करके मीरी-पीरी के मालिक गुरु के महलों की तरफ चले गए तथा साधू सोच में पड़ा रहा|

वह साधू भाई रणीयां था जो पहले डाकू था| अकेले स्त्री-पुरुष को पकड़ कर उस से सोना-चांदी छीन लिया करता था| एक दिन की बात है, रणीयां का दो दिन कहीं दांव न लगा किसी से कुछ छीनने का| वह घूमता रहा तथा अंत में एक वृक्ष के नीचे बैठ गया तथा इन्तजार करने लगा| उसकी तेज निगाह ने देखा एक स्त्री सिर पर रोटियां रख कर खेत को जा रही थी, उसके पास बर्तन थे| बर्तनों की चमक देख कर वह उठा तथा उस स्त्री को जा दबोचा| उसके गले में आभूषण थे| बर्तन छीन कर आभूषण छीनने लगा ही था कि उसके पास शरर करके तीर निकल गया| उसने अभी मुड़ कर देखा ही था कि एक ओर तीर आ कर उसके पास छोड़ा| वह डर गया, उसके हाथ से बर्तन खिसक गए तथा हाथ स्त्री के आभूषणों से पीछे हो गया| 

इतने में घोड़े पर सवार मीरी पीरी के पातशाह पहुंच गए| स्त्री को धैर्य दिया| वह बर्तन ले कर चली गई तथा रणीये को सच्चे पातशाह ने सिर्फ यही वचन किया -

'जा गुरमुखा! कोई नेकी करो| अंत काल के वश पड़ना है|' रणीयां चुपचाप चल पड़ा| उस ने कुल्हाड़ी फैंक दी तथा वचन याद करता हुआ वह घर को जाने की जगह साधुओं के पास चला गया| एक साधू ने उसको नांगा साधू बना दिया| घूमते-फिरते गुरु की नगरी में आ गया|

सतिगुरु जी जब गुरु के महलों की तरफ चले गए तो साधू रणीये ने शिवलिंग वहीं रहने दिया| वह जब दुःख भंजनी बेरी के पास पहुंचा तो सबब से गुरु का सिक्ख मिला, वह गुरमुख तथा नाम सिमरन करने वाला था, उसकी संगत से रणीया सिक्ख बन गया, उसने वस्त्र बदले, सतिगुरु जी के दीवान में पहुंचा तथा गुरु के लंगर की सेवा करने लगा| रणीया जी बड़े नामी सिक्ख बने|

Saturday, 26 October 2013

भाई भाना परोपकारी जी - जीवन परिचय

ॐ श्री साँई राम जी


भाई भाना परोपकारी जी

जिऊं मणि काले सप सिरि हसि हसि रसि देइ न जाणै |
जाणु कथूरी मिरग तनि जींवदिआं किउं कोई आनै |
आरन लोहा ताईऐ घड़ीऐ जिउ वगदे वादाणै |
सूरणु मारनि साधीऐ खाहि सलाहि पुरख परवानै |
पान सुपारी कथु मिलि चूने रंगु सुरंग सिञानै |
अउखधु होवै कालकूटु मारि जीवालनि वैद सुजाणै |
मनु पारा गुरमुखि वसि आणै |

भाई गुरदास जी फरमाते हैं, जैसे काले नाग के सिर में मणि होती है पर उसको ज्ञान नहीं होता, मृग की नाभि में कस्तूरी होती है| दोनों के मरने पर उत्तम वस्तुएं लोगों को प्राप्त हो जाती हैं| इसी तरह लोहे की अहिरण होती है| जिमीकंद धरती में होता है| उसकी विद्वान उपमा करते तथा खाते हैं लाभ पहुंचता है| ऐसे ही देखो पान, सुपारी कत्था, चूना मिलकर रंग तथा स्वाद पैदा करते हैं| काला सांप जहरीला होता है, समझदार उसे मारते हैं तथा लाभ प्राप्त करते हैं|

इसी तरह जिज्ञासु जनो! मन जो है वह पारे की तरह है तथा सदा डगमगाता रहता है| उस पर काबू नहीं पाया जा सकता| यदि कोई मन पर काबू पा ले तो उसका कल्याण हो जाता है| ऐसे ही भाई भाना जी हुए हैं, जिन्होंने मन पर काबू पाया हुआ था| उनको कोई कुछ कहे वह न क्रोध करते थे तथा न खुशी मनाते| अपने मन को प्रभु सिमरन तथा लोक सेवा में लगाए रखते|

ग्रंथों में उनकी कथा इस तरह आती है -

भाना प्रयाग (इलाहाबाद) का रहने वाला था| यह छठे सतिगुरु जी के हजूरी सिक्खों में था, वह सदा धर्म की कमाई करता| जब कभी फुर्सत मिलती तो दरिया यमुना के किनारे जा कर प्रभु जी का सिमरन करता, किसी का दिल न दुखाता, किसी की निंदा चुगली करना, जानता ही नहीं था, कोई उसे अपशब्द कहे तो वह चुप रहता|

एक दिन भाई भाना यमुना किनारे बैठा हुआ सतिनाम का सिमरन करता बाणी पढ़ रहा था, पालथी मार कर बैठे हुए ने लिव गुरु चरणों से जोड़ी हुई थी| मन की ऊंची अवस्था के कारण उसकी आत्मा श्री अमृतसर में घूम रही थी तथा तन यमुना किनारे था, अलख निरंजन अगम अपार ब्रह्म के निकट होने तथा उसके भेद को पाने का प्रयत्न करता रहा था वह जब गुरु का सिक्ख बना था तब वह युवावस्था में था, व्यापारी आदमी था व्यापार में झूठ बोलना नहीं जानता था|

हां, भाई भाना गुरु जी की बाणी पढ़ रहा था| संध्या हो रही थी| डूबता हुआ सूरज अपनी सुनहरी किरणें यमुने के निर्मल जल पर फैंक रहा था| उस समय एक नास्तिक (ईश्वर से विमुख) मुर्ख भाई जी के पास आ बैठा| भाई जी को कहने लगा - 'हे पुरुष! मुझे यह समझाओ कि तुम प्रतिदिन हर समय परमात्मा को बे-आराम क्यों करते हो| क्या तुम्हारा परमात्मा परेशान नहीं होता? एक दिन किसी को यदि कोई बात कह दि तो वह काफी है, रोज़ बुड़-बुड़ करते रहते हो|'

भाई भाना ने नास्तिक के कटु वचनों का क्रोध नहीं किया, प्रेम से कहने लगा-सुनो नेक पुरुष मैं बहुत ज्ञानी तो नहीं पर जो कुछ मैं समझता हूं तुम्हें समझाने का यत्न करता हूं| ध्यान से सुनो, जैसे किसी को चोर मिले तो वह राजा के नाम की पुकार करता है, वह चोर भाग जाते हैं क्योंकि चोरों को डर होता है कि राजा उनको दण्ड न दे| इसी तरह मनुष्य के इर्द-गिर्द काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार पांच चोर हैं| वह जीव को सुख से बैठने नहीं देते| जीव का भविष्य लूटते हैं| पाप कर्म की ओर प्रेरित करते हैं, उन पांचों चोरों से छुटकारा पाने के लिए जरूरी है कि सतिगुरों के बताए ढंग से राजाओं के राजा परमेश्वर के नाम का सिमरन किया जाए, साथ ही यदि हम परमेश्वर को याद रखे तो वह भी हमें याद रखता है| सांस-सांस नाम याद रखना चाहिए| भगवान को भूलने वाला अपने आप को भूल जाता है जो अपने आप को भूल क्र बुरे कर्म करता है, बुरे कर्मों के फल से उसकी आत्मा दुखी होती है| वह संसार से बदनाम हो जाता है, उस को कोई अच्छा नहीं समझता|

जैसे खाली बांस में फूंक मारने से दूसरी ओर निकल जाती है बांस पर कोई असर नहीं होता, वैसे भाने के शुभ तथा अच्छे वचनों का असर मुर्ख पर बिल्कुल न हुआ| एक कान से सुना तथा दूसरे से बाहर निकाल दिया, साथ ही क्रोधित हो कर भाई भाने को कहने लगा, 'मुर्ख! क्यों झूठ बोलते जा रहे हो| न कोई परमात्मा है तथा न किसी को याद करना चाहिए|' यह कह कर उसने भाई साहिब को एक जोर से थप्पड़ मारा, थप्पड़ मार कर आप चलता बना, रास्ते में जाते-जाते भाई जी तथा परमात्मा को गालियां निकालते हुए चलता गया|

भाई भाना जी धैर्यवान पुरुष थे| उन्होंने क्रोध न किया, बल्कि उठ कर घर चले गए| घर पहुंच कर सतिगुरों के आगे विनय की, 'सच्चे पातशाह! मैं तो शायद कत्ल होने के काबिल था, आप की कृपा है कि एक थप्पड़ से ही मुक्ति हो गई है| पर मैं चाहता हूं, उस नास्तिक का भला हो, वह सच्चाई के मार्ग पर लगे|'

इस घटना के कुछ समय पश्चात एक दिन भाई भाना जी फिर यमुना किनारे पहुंचे| आगे जा कर क्या देखते हैं कि वहीं नास्तिक वहां बैठा हुआ था, उसका हुलिया खराब था, तन के वस्त्र फटे हुए थे| तन पर फफोले ही फफोले थे| जैसे उसकी आत्मा भ्रष्ट हो रखी थी वैसे उसका तन भी भ्रष्ट हो गया| वह रो रहा था, उसके अंग-अंग में से दर्द निकल रहा था| उसका कोई हमदर्द नहीं बनता| भाई भाने जी को देखते ही वह शर्मिन्दा-सा हो गया, आंखें नीचे कर लीं| भाई साहिब की तरफ देख न सका| उसकी बुरी दशा पर भाई साहिब को बहुत रहम आया| उन्होंने दया करके उसको बाजु से पकड़ लिया तथा अपने घर ले आए| घर ला कर सेवा आरम्भ की, सतिनाम वाहिगुरु का सिमरन उसके कानों तक पहुंचाया| उसको समझाया कि भगवान अवश्य है| उस महान शक्ति की निंदा करना अच्छा नहीं| धीरे-धीरे उसका शरीर अरोग हो गया| आत्मा में परिवर्तन आ गया| वह परमात्मा को याद करने लगा, ज्यों-ज्यों सतिनाम कहता गया, त्यों-त्यों उसके शरीर के सारे रोग दूर होते गए|

उसने भाई भाना जी के आगे मिन्नत की कि भाई साहिब उसको अपने सतिगुरों के पास ले चले, गुरों के दर्शन करके वह भी पार हो जाए क्योंकि उसने अपने बीते जीवन में कोई नेकी नहीं की थी|

यह सुन कर भाई भाना जी को खुशी हुई| उन्होंने उसी समय तैयारी की तथा मंजिल-मंजिल चल कर श्री अमृतसर पहुंच गए, आगे सतिगुरों का दीवान लगा हुआ था, दोनों ने जा कर सतिगुरों के चरणों पर माथा टेका| गुरु जी ने कृपा करके भाई भाने के साथ उस नास्तिक को भी पार कर दिया, वह गुरु का सिक्ख बन गया, फिर वह कहीं न गया| गुरु के लंगर में सेवा करके जन्म सफल करता रहा| इस तरह मन पर काबू पाने वाले भाई भाना जी बहुत सारे लोगों को गुरु घर में लेकर आए|





Friday, 25 October 2013

भाई साईयां जी - जीवन परिचय

ॐ श्री साँई राम जी



भाई साईयां जी

गुरमुख मारग आखीऐ गुरमति हितकारी |
हुकमि रजाई चलना गुर सबद विचारी |
भाणा भावै खसम का निहचउ निरंकारी |
इशक मुशक महकार है होइ परउपकारी |
सिदक सबूरी साबते मसती हुशिआरी |
गुरमुख आपु गवाइआ जिणि हउमै मारी |

भाई गुरदास जी महाज्ञानी थे| आप अपनी रचना द्वारा गुरमुखों या सच्चे सिक्खों के बारे में बताते हैं कि सच्चा सिक्ख या गुरमुख वह है, जो गुरमति गुर की शिक्षा से प्यार करता है| गुरु के शब्द का विचार करता हुआ करतार के हुक्म में चलता है| विश्वास के साथ प्रभु का नाम सिमरन करता तथा उनकी रजा मानता है, वह उसी तरह परोपकारी होता है जैसे कपूर, सुगंधि, कस्तूरी आदि होती है| दूसरे को महक आती है| वह गुरमुख अपने गुणों, परोपकारों तथा सेवा से दुनिया को सुख देता है, किसी को दुःख नहीं देता| सहनशील होता है, सबसे विशेष बात यह है कि वह अपने आप अहंकार को खत्म करके गुरु या लोगों का ही हो जाता है|

गुरु घर में ऐसे अनेक गुरसिक्ख हुए हैं, जिन्होंने अहंकार को मारा तथा अपना आप न जताते हुए सेवा तथा परोपकार करने के साथ-साथ नाम का सिमरन भी करते रहे|

ऐसे विनम्र सिक्खों में एक भाई साईयां जी हुए हैं| आप नाम का सिमरन करते तथा अपना आप जाहिर न करते| रात-दिन भक्ति करते रहते| आप ने गांव से बाहर बरगद के नीचे त्रिण की झोंपड़ी बना ली| खाना-पीना भूल गया| नगरवासी अपने आप कुछ न कुछ दे जाते| इस तरह कहें कि उन्होंने रिजक की डोर भी वाहिगुरु के आसरे छोड़ दी| मोह, माया, अहंकार, लालच सब को त्याग दिया था| उसको भजन करते हुए काफी समय बीत गया|

एक समय आया देश में वर्षा न हुई| आषाढ़ सारा बीत गया| श्रावण का पहला सप्ताह आ गया पर पानी की एक बूंद न गिरी, टोए, तालाब सब सूख गए| पशु तथा पक्षी भी प्यासे मरने लगे| धरती जल गई, गर्म रोशनी मनुष्यों को तड़पाने लगी| हर एक जीव ने अपने इष्ट के आगे अरदास की, यज्ञ लगाए गए| कुंआरी लड़कियों को वृक्षों पर बिठाया गया, पर आकाश पर बादलों के दर्शन न हुए| इन्द्र देवता को दया न आई|

उस इलाके के लोग बड़े व्याकुल हुए क्योंकि वहां कुआं नहीं था| छप्पड़ों तथा तालाबों का पानी पीने के लिए था, पर पानी सूख गया| आठ-आठ कोस से पीने के लिए पानी लाने लगे| भाई साईयां के नगर वासी तथा इर्द-गिर्द के नगरों वाले इकट्ठे हो कर भाई साईयां के पास गए| सब ने मिल कर हाथ जोड़ कर गले में दामन डाल कर भाई साईयां के आगे प्रार्थना की|

'हे भगवान के भक्त! हम गरीबों, पापियों तथा निमाणे लोगों, बेजुबान पशुओं के जीवन के लिए भगवान के आगे प्रार्थना करो, वर्षा हो| कोई अन्न नहीं बोया, पशु-पक्षी तथा मनुष्य प्यासे मर रहे हैं| इतना दुःख होते हुए भी उस भगवान को हमारा कोई ख्याल नहीं| क्या पता हमने कितने पाप किए हैं| हमारे पापों का फल है कि वर्षा नहीं हो रही दया करें! कृपा करें! मासूम बच्चों पर रहम किया जाए|

भाई साईयां ने मनुष्य हृदय का रुदन सुना, उसके नैनों में भी आंसू टपक आए| उसका मन इतना भरा कि वह बोल न सका| उसने आंखें बंद की, आधा घंटा अन्तर्ध्यान हो कर अपने गुरुदेव (श्री गुरु हरिगोबिंद साहिब जी) के चरण कंवलों में लिव जोड़ी| कोई आधे घंटे के पश्चात आंखें खोल कर कहने लगे-'भक्तों! यह पता नहीं किस के पापों का फल है जो भगवान क्रोधित है| अपने-अपने घर जाओ, परमात्मा के आगे प्रार्थना करो| यह कह कर भाई साईयां अपनी झोंपड़ी में से उठा तथा उठ कर बाहर को चला गया| लोग देखते रह गए| वह चलता गया तथा लोगों की नज़रों से ओझल हो गया| लोग खुशी-खुशी घरों को लौट आए कि अब जब वर्षा होगी, भाई साईयां अपने गुरु के पास पहुंचेगा| हम गरीबों के बदले अरदास की जाएगी| लोग घर पहुंचे तो उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर से आंधी उठी| धीरे-धीरे वह आंधी लोगों के सिर के ऊपर आ गई, उसकी हवा बहुत ठण्डी थी|

आंधी के पीछे महां काली घटा छिपी थी, आंधी आगे चली गई तथा मूसलाधार वर्षा होने लगी| एक दिन तथा एक रात वर्षा होती रही तथा चारों ओर जलथल हो गया| छप्पड़, तालाब भर गए, खेतों के किनारों के ऊपर से पानी गुजर गया| पशु-पक्षी, कीड़े-मकौड़े तथा मनुष्य आनंदित हो कर नृत्य करने लगे| उजड़ा तथा मरा हुआ देश सजीव हो गया, जिन लोगों ने भाई साईयां जी के आगे प्रार्थना की थी या प्रार्थना करने वालों के साथ गए थे, वे सभी भाई साईयां के गुण गाने लगे, कोई कहे-भाई साईयां पूरा भगवान हो गया है| किसी ने कहा, उसका गुरु बड़ा है, सब गुरुओं की रहमतें हैं| हम कंगालों की खातिर उसने गुरु के आगे जाकर प्रार्थना की| गुरु जी ने अकाल पुरख को कहा, बस अकाल पुरुष ने दया करके इन्द्र देवता को हुक्म दिया| इन्द्र देवता दिल खोल कर बरसे| बात क्या, साईयां जी तथा उनके सतिगुरों की उपमा चारों तरफ होने लगी|'

जब वर्षा रुक गई| नगरवासी इकट्ठे हो कर भाई साईयां जी की तरफ चले| भाई जी को भेंट करने के लिए वस्त्र, चावल, गुड़ तथा नगद रुपए थालियों में रखकर हाथों में उठा लिए| जूह के बरगद के पेड़ के नीचे टपकती हुई छत्त वाली झोंपड़ी में साईयां बैठा वाहिगुरु का सिमरन कर रहा था, संगतों को आता देख कर पहले ही उठ कर दस कदम आगे हुआ| उसने दोनों हाथ ऊपर उठा कर चीख मारी, 'ठहर जाओ! क्यों आ रहे हो, क्या बात है?'

'आप गुरुदेव हो, हम आप का धन्यवाद करने आएं हैं| उजड़ा हुआ देश खुशहाल हो गया| हमने दर्शन करने हैं, चरण धूल लेनी है, लंगर चलाने है| आप के लिए पक्की कुटिया बनवानी है| आप ही हमारे परमेश्वर हो|'

इस तरह उत्तर देते हुए लोग श्रद्धा से आगे बढ़ आए| जबरदस्ती साईयां जी के चरणों पर माथा टेकने लग पड़े जो सामग्री साथ लाए थे उसके ढेर लग गए| जब सबने माथा टेक लिया तो भाई साईयां जी ऊंची-ऊंची रोने लग पड़ा, आए हुए लोग देखकर हैरान हो गए| मौत जैसा सन्नाटा छा गया| भाई साहिब रोते हुए कहने लगे, 'मेरे सिर पर भार चढ़ाया है, मैं महां पापी हूं, मेरे यहां बैठने के कारण ही वर्षा नहीं होती थी| मुझ पापी के सिर पर और पाप चढ़ाया है मुझे माथा टेक कर, मुझे गुरुदेव कहा है मैं जरूर नरकों का भागी बनूंगा मुझे क्षमा कीजिए, मैंने त्रिण की झोंपड़ी में ही रहना है| मेरा दूसरा कोई ठिकाना नहीं, यह वर्षा सतिगुरों की कृपा है| धन्य छठे पातशाह मीरी-पीरी के स्वामी सच्चे पातशाह! मैं आप से बलिहारी जाऊं, वारी जाऊं, दुःख भंजन कृपालु सतिगुरु! जिन्होंने जलती हुई मानवता को शांत किया है| मैं कहता हूं यह सारी सामग्री, सारा कपड़ा, सारे रुपए इकट्ठे करके मेरे सतिगुरु के पास अमृतसर ले जाओ| मुझे अपने पाप माफ करवाने दें!' मैंने जीवन भर त्रिण की झोंपड़ी में रहना है| मैं पहले ही पापी हूं, मेरे बुरे कर्मों के कारण वर्षा नहीं हुई| अब मुझे गुरु कह कर और नरकों का भागी न बनाओ, जाओ बुजुर्गों जाओ!

समझदार लोग भाई साईयां जी की नम्रता पर बहुत खुश हुए तथा उनकी स्तुति करने लगे, दूसरों को समझा कर पीछे मोड़ दिया| सारी सामग्री बांध कर श्री अमृतसर भेज दी, सभी जो पहले देवी-देवताओं के पुजारी थे, वे श्री गुरु नानक देव जी के पंथ में शामिल हुए| श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी को नगर में बुला कर सब ने सिक्खी धारण की, गुरु जी ने भाई साईयां को कृतार्थ किया| उसका लोक-परलोक भी संवार दिया| धन्य है सतिगुरु जी तथा धन्य है नेक कमाई करने वाले सिक्ख|

Thursday, 24 October 2013

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 47

ॐ सांई राम जी 


आप सभी  को साँई रसोईं छत्तरपुर की ओर साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम  घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 47 - पुनर्जन्म 
------------------------------
------


वीरभद्रप्पा और चेनबसाप्पा (सर्प व मेंढ़क) की वार्ता ।
गत अध्याय में बाबा द्घारा बताई गई दो बकरों के पूर्व जन्मों की वार्ता थी । इस अध्याय मे कुछ और भी पूर्व जन्मों की स्मृतियों का वर्णन किया जाता है । प्रस्तुत कथा वीरभद्रप्पा और चेनवसाप्पा के सम्बन्ध में है।

Wednesday, 23 October 2013

माई सरखाना जी - जीवन परिचय्

ॐ श्री साँई राम जी



माई सरखाना जी 

मान सरोवर हंसला खाई मानक मोती |
कोइल अंब परीत है मिठ बोल सरोती |
चंदन वास वणासपति हुइ पास खलोती |
लोहा पारस भेटिए हुइ कंचन जोती |
नदीआं नाले गंग मिल होन छोत अछोती |
पीर मुरीदां पिरहड़ी इह खेप सिओती |६|

आज की दुनिया में प्यार तथा श्रद्धा की बेअंत साखियां हैं| गुरु घर में तो अनगिनत सिक्ख हुए हैं, जिन्होंने गुरु चरणों से ऐसी प्रीति की है, जिस की मिसाल अन्य धर्मों में कम ही मिलती है| ऐसी प्रीति की व्याख्या करते हुए भाई गुरदास जि फरमाते हैं कि सिक्ख गुरु से ऐसी प्रीति करते हैं जैसे मान सरोवर के हंस मोतियों के साथ करते हैं, भाव मोती खाते है| कोयल का प्यार आमों के साथ है तथा उनके वैराग में मीठे गीत गाती रहती है| चंदन की सुगन्धि से सारी वनस्पति झूम उठती है| लोहा पारस के साथ मिल कर सोना हो जाता है| नदियां तथा नाले गंगा से मिल कर पवित्र हो जाते हैं| अंत में भाई साहिब कहते हैं, सिक्खों का प्यार ही उनकी पवित्र रास पूंजी है|

जब इतिहास को देखे तो माई सरखाना का नाम आदर से लिया जाता है| आप गुरु घर में बड़ा आदर प्राप्त कर चुकी थीं| उसके प्यार की कथा बड़ी श्रद्धा दर्शाने वाली है| वह प्यारी दीवानी श्रद्धालु तथा अमर आत्मा हुई| जिसका यश आज भी गाया जाता है|

किसी गुरु-सिक्ख से माई ने गुरु घर की शोभा सुनी| उस समय बुढ़ापा निकट था तथा जवानी ढल चुकी थी| बच्चों का विवाह हो गया था| जिम्मेवारियां सिर से उतर गई थीं| उसे अब जन्म-मरण के चक्र का ज्ञान हो गया था| पर यह पता नहीं था कि चौरासी का चक्र कैसे खत्म होता था|

गुरसिक्ख ने माई सरखाना को गुरसिक्खी का ज्ञान करवाते हुए यह शब्द पढ़ा-

मन मंदरु तनु वेस कलंदरु घट ही तीरथि नावा ||
एकु सबदु मेरै प्रानि थसतु है बाहुड़ि जनमि न आवा ||१||

यह शब्द जो हृदय में बसता है, वह शब्द सतिगुरु जी से प्राप्त होता है| सतिगुरु त्रिकालदर्शी थे| सतिगुरु नानक देव जी की गुरुगद्दी पर छठे पातशाह हैं मीरी-पीरी के मालिक! उनको याद कर उनके चरणों में सुरत लगा कर मन में श्रद्धा धारण करो|

अच्छा! मैं श्रद्धा करूंगी| मुझे बताओ सेवा के लिए भेंट क्या रखूंगी, जब दर्शन करूं| माई सरखाना ने पूछा था|

गुरसिक्ख-सतिगुरु जी प्रीत पर श्रद्धा चाहते हैं| कार भेंट जो भी हो| पहुंच से ऊपर कुछ नहीं मांगते| एक टके से भी प्रसन्न होते हैं| उनके दरबार में सेवक हाथी, घोड़े, दुशाले, रेशमी वस्त्र, सोना, चांदी बेअंत भेंट चढ़ाते हैं| नौ निधियां तथा बारह सिद्धियां हैं| सतिगुरु जी अवश्य आपका जन्म-मरन काटेंगे, वह कृपा के सागर हैं :-

|हरिगोविंद गुरु अरजनहुं गुरु गोबिंद नाउं सदवाया |
गुर मूरति गुर शबद है साध संगति विच प्रगटी आया |
पैरीं पाइ सभ जगत तराया |२५

इस तरह गुरु घर की शोभा सुन कर माई सरखाना गुरु घर की श्रद्धालु बन गई| उसने ध्यान कर लिया तथा गुरसिक्ख द्वारा सुने मूल मंत्र का जाप करने लगी| उसके मन में प्रेम जाग पड़ा| मन के साथ हाथ भी सेवा के लिए उत्साहित हुए| अपनी फसलों में से मोटे-मोटे गुल्लों वाली कपास चुनी| कपास चुन कर पेली तथा फिर रुई पिंजाई, रुई पिंजाई गई तो सतिगुरु जी का ध्यान धर कर कातती रही| रुई कात कर जुलाहे से श्रद्धा के साथ कपड़ा तैयार करवाया| बुढ़ापे में लम्बी आयु के तजुर्बे के साथ बारीक तथा सूत का कपड़ा रेशमी कपड़े जैसा था| उसने अपने हाथ से चादरा तैयार किया तथा मन में श्रद्धा धारण की, 'सतिगुरु जी के दर्शन हो|'

पर गुरसिक्खों से सुनती रही कि गुरु जी के दरबार में राजा, महाराजा तथा वजीर आते हैं| फिर वैराग के साथ मन में सोचती मैं तो एक गुरसिक्ख हूं, जिसके पास एक चादरा है वह भी खादी का| कैसे सतिगुरु जी स्वीकार करेंगे? इस तरह मन में वैराग आया तथा मन में उतार चढ़ाव रहा|

मीरी-पीरी के मालिक सतिगुरु हरिगोबिंद साहिब जी मालवे की धरती को पूजनीय बनाने तथा सिक्ख सेवकों का उद्धार करने गए थे| डरोली भाई दीवान लगा था, सिक्ख संगतें आतीं तथा दर्शन करके वापिस जातीं| घरों तथा नगरों में जा कर गुरु यश को सुगन्धि की तरह फैलातीं|


माई सरखाना को भी खबर मिल गई कि सतिगुरु जी निकट आ गए हैं| वह भी सतिगुरु जी के दर्शन के लिए तैयार हो गई| देशी चीनी में घी मिलाया| मक्खन के परांठे बनाए तथा चादरे को जोड़ कर सिर पर रखकर चल पड़ी| चार-पांच कोस का रास्ता तय करके गुरु दरबार के निकट पहुंची तो माई के पैर रुक गए| वह मन ही मन विचार करने लगी, मैं निर्धन हूं, मेरा खादी का चादरा, चीनी, घी तथा परांठे क्या कीमत रखते हैं? जहां राजाओं, महाराजाओं के कीमती दुशाले आए होंगे|.....छत्तीस प्रकार का भोजन खाने वाले दाता यह भारी परांठे क्या पता खाए कि न खाएं यह तो.....


वह दीवार के साथ जुड़ कर खड़ी हो गई| आंखें बंद कर लीं तथा अंतर-आत्मा में सतिगुरु जी को याद करने लगी| वह दुनिया को भूल गई, अटल ध्यान लग गया, सुरति जुड़ गई|

उधर सच्चे पातशाह सतिगुरु हरिगोबिंद साहिब जी महाराज, मीरी पीरी के मालिक, भवसागर से पार करने की समर्था रखने वाले दाता, दयावान, अन्तर्यामी जान गए| माता सरखाना ध्यान लगा कर खड़ी है| उसके आगे भ्रम की दीवार है| वह दीवार पीछे नहीं हट सकती, जितनी देर कृपा न हो|

अन्तर्यामी दाता ने हुक्म दिया - 'घोड़ा लाओ!' यह हुक्म दे कर पलंग से उठ गए| जूता पहना तथा शीघ्र ही दीवान में से बाहर हुए| सिक्ख संगत चोजी प्रीतम के चोज को देख कर हैरान हुई, जो उनका भेद जानते थे, वह समझ गए कि किसी जीव को पार उतारने के लिए महाराज चले हैं तथा जो नए थे वे हैरान ही थे| उनकी हैरानी को दूर करने वाला कोई नहीं था|

उधर माई सरखाना की आंखें बंद थीं तथा वह प्रार्थनाएं किए जा रही थीं| उसकी आत्मा कहती जा रही थी - 'हे सच्चे पातशाह! मैं निर्धन हूं| कैसे दरबार में आऊं, डर लगता है| अपनी कृपा करो, मैं दर्शन के लिए दूर खड़ी हूं| कोई रास्ता नहीं, डर आगे चलने नहीं देता, दाता जी कृपा करो! दया करो!'

इस तरह आंखें बंद करके सतिगुरु जी को याद किए जा रही थी| उधर सतिगुरु जी घोड़े पर सवार हुए, घोड़े को दौड़ाया तथा उसी जगह पहुंचे जहां माई सरखाना दीवार से सहारा लगा कर खड़ी थी| सतिगुरु जी ने आवाज दी -

'माता जी देखो! आंखें खोल कर देखो! सतिगुरु जी के यह शब्द सुन कर माई ने आंखें खोलीं, देखा दाता घोड़े पर सवार खड़े थे| माई शीघ्र ही आगे हुई, चरणों पर शीश झुका कर प्रणाम किया| खुशी में इतनी मग्न हो गई कि उसकी जुबान न खुली, वह कुछ बोल न सकी| बहती आंखों से सतिगुरु की तरफ देखती दर्शन करती गई|'

सच्चे पातशाह ने कहा-'अच्छा माता जी! रोटी दें हम खाएं, हमें बहुत भूख लगी है|.... परांठे.....| आपका हम इन्तजार करते रहे आप तो रास्ते में ही खड़े रहे|'

माई ने झोली में से घी, चीनी वाला डिब्बा तथा परांठे निकाल कर सतिगुरु को पकड़ा दिए| सतिगुरु ने प्रसन्न होकर भोजन किया| भोजन करने के बाद सतिगुरु जी ने चादरे की मांग की| माई ने चादरा गुरु जी को भेंट कर दिया| माई ने जी भर कर दर्शन कर लिये एवं मन की श्रद्धा पूरी हो गई| माई कृतार्थ हो गई| उसका जन्म मरन का चक्र खत्म हो गया| दाता ने अपनी कृपा से माई सरखाना को अमर कर दिया|

सतिगुरु जी माई सरखाना का उद्धार कर ही रहे थे कि पीछे सिक्ख आ गए| हजूरी सिक्ख को सतिगुरु जी ने हुक्म दिया - 'माता जी को दरबार में ले आओ| यह हुक्म करके आप दरबार की तरफ चले गए| माई सरखाना दो दिन दरबार में रह कर दर्शन करती रही| उसका कल्याण हो गया| उस माई के नाम पर आज उसका गांव सरखाना मालवे में प्रसिद्ध है|

Tuesday, 22 October 2013

भाई सुजान जी - जीवन परिचय

ॐ साँई राम जी



भाई सुजान जी

मंनै पावहि मोखु दुआरु || मंनै परवारै साधारु ||
मंनै तरै तारे गुरु सिख || मंनै नानक भवहि न भिख ||
ऐसा नामु निरंजनु होइ || जे को मंनि जाणै मनि कोई ||१५||
गुर का बचनु जीअ कै साथ || गुर का बचनु अनाथ को नाथ ||



उपरोक्त महां वाक का भावार्थ यह है कि जो परमात्मा के नाम का सुमिरन करते, उसको मानते, अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हैं वह सदा मोक्ष प्राप्त करते हैं| जो स्वयं भक्ति भाव पर चलते हैं, वह दूसरों को भी पार उतार देते हैं| साथ ही दाता का फरमान है कि गुरु जी का वचन, जिन्दगी भर न भूले, हृदय में बसाया जाए| गुरु जी का वचन, यह तो सब का आसरा है| उसके आसरे ही जीवन व्यतीत करते हैं भाव यह कि गुरु घर में हुक्म मानना, नाम का सुमिरन तथा सेवा ही महत्व रखती है| यही सिक्खी जीवन सर्वश्रेष्ठ है|

सेवा और नाम सिमरन करने वाले सिक्खों में एक सिक्ख वैद्य सुजान जी भी आते हैं| श्री कलगीधर जी की आप पर दया दृष्टि हुई थी| जन्म मरन के चक्र कट गए थे|

वैद्य सुजान जी लाहौर के रहने वाले थे| फारसी पढ़ने के साथ वैद्य हकीम भी बने थे तथा फारसी की कविता करते थे| वह हिकमत करते तो उनका मन अशांत रहता| मन की शांति ढूंढने के लिए एक कवि मित्र के साथ श्री आनंदपुर जा पहुंचे| उस समय श्री आनंदपुर में सतिगुरु जी के पास 52 कवि थे| आप कवियों का बहुत सम्मान करते थे| उनकी महिमा सारे उत्तर भारत में थी|

भाई सुजान जी आए| दो दिन तो श्री आनंदपुर शहर की महिमा देखते रहे| जब सतिगुरु जी के दरबार में पहुंचे व दर्शन किए तो सतिगुरु जी ने अद्भुत ही खेल रचा|

जब दर्शन करने गए भाई सुजान ने सतिगुरु जी के चरणों पर माथा टेककर नमस्कार की तो उस समय सतिगुरु जी ने एक अनोखा वचन किया|

हे सुजान! तुम तो वैद्य हो| दीन-दुखियों की सेवा करो| चले जाओ, दूर चले जाओ तथा सेवा करो| उसी में तुम्हें शांति प्राप्त होगी, पार हो जाओगे| दौड़ जाओ|'

'महाराज! कहां जाऊं?' भाई सुजान ने पूछा|

'दौड़ जाओ! तुम्हारी आत्मा जानती है कि कहां जाना है अपने आप ले जाएगी| बस आनंदपुर से चले जाओ!'

फिर नहीं पूछा, चरणों पर नमस्कार की, सारी भूख मिट गई, पानी पीने की तृष्णा नहीं रही| जूते पहनना भूल गया, नंगे पांव भाग उठा, कीरतपुर पार करने के पश्चात, सरसा पार कर गया, वह भागने से न रुका, एक सैनिक की तरह भागता गया| सूर्य अस्त होने वाला था, चरवाहे पशुओं को लेकर जा रहे थे| वह भागता जा रहा था, उसकी मंजिल कब खत्म होगी? यह उसको पता नहीं था| हां, सूर्य अस्त होने के साथ ही एक नगर आया| वहां दीवारों के पास जा कर उसको ठोकर लगी| जिससे वह मुंह के बल गिर पड़ा, गिरते हुए उसके मुंह से निकला-वाहिगुरु तथा मूर्छित हो गया|

नगर की स्त्रियों ने देखा भागता आता हुआ राही गिर कर मूर्छित हो गया है| उन्होंने शोर मचा कर गाँव के आदमियों को बुला लिया| मर्दों ने भाई सुजान चंद को उठाया| चारपाई पर लिटा कर उसकी सेवा की, नंगे पांव में छाले थे, रक्त बह रहा था, पैरों को गर्म पानी से धोया, उसे होश में लाया गया| जब होश आई तो पास मर्द-स्त्रियों को देख कर उसके मुंह से सहज ही निकल गया 'धन्य कलगी वाले पिता|'

'आपने कहां जाना है?' गांव के मुखिया ने पूछा

'कहीं नहीं, जहां जाना था वहां पहुंच गया हूं| मेरा मन कहता है मैंने यहीं रहना है| मैं वैद्य हूं रोगियों-दुखियों की सेवा तन-मन से करूंगा| बताओ जिन को रोग है, मैंने कोई शुल्क नहीं लेना, मैंने यहां रहना है भोजन पान तथा सेवा करनी है| सुजान चंद जी ने उत्तर दिया था|

सुनने वाले खुश हुए कि परमात्मा ने उन पर अपार कृपा की| वह गरीब लोग थे, गरीबी के कारण उनके पास कोई नहीं आता था| उनके धन्य भाग्य जो हकीम आ गया, एक माई आगे बढ़ी| उसने कहा- मेरा बुखार नहीं उतरता इसलिए मुझे कोई दवा दीजिए|

'अभी उतर जाएगा! यह....चीज़ खा लो| चीज़ खाते समय मुंह से बोलना, धन्य कलगीधर पातशाह!' वह माई घर गई उस ने वैद्य जी की बताई चीज़ को खाया व मुंह से कहा, 'धन्य गुरु कलगीधर पातशाह सचमुच उसका बुखार उतर गया, वह अरोग हो गई| वैद्य की उपमा सारे गांव में फैल गई| एक त्रिण की झोंपड़ी में उस ने चटाई बिछा ली, बाहर से जड़ी बूटियां ले आया और रोगियों की सेवा करने लगा| चटाई पर रात को सो जाता तथा वाहिगुरु का सिमरन करता| आए गए रोगी की सेवा करता| इस तरह कई साल बीत गए| पत्नी, बच्चे तथा माता-पिता याद न आए| अमीरी लिबास तथा खाना भूल गया, वह एक संन्यासी की तरह विनम्र होकर लोगों की सेवा करने लगा| शाही मार्ग पर गांव था, जब रोगियों से फुर्सत मिलती तो राहगीरों को पानी पिलाने लग जाता| हर पानी पीने वाले को कहता - कहो धन्य गुरु कलगीधर पातशाह! यात्री ज्यादातर श्री आनंदपुर जाते-आते थे| जो जाते वह श्री आनंदपुर जी जाकर बताते कि मार्ग में एक सेवक है, वह बहुत सेवा करता है| हरेक जीव से कहलाता है, 'धन्य गुरु कलगीधर पातशाह|' यह सुनकर गुरु जी मुस्करा देते|

एक दिन ऐसा आ पहुंचा| जिस दिन भाई सुजान की सेवा सफल होनी थी| उसके छोटे-बड़े ताप-संताप और पाप का खण्डन होना था| खबर आई कि सच्चे सतिगुरु जी आखेट के लिए इधर आ रहे हैं| यह खबर भाई सुजान को भी मिल गई| हृदय खुशी से गद्गद् हो गया, दर्शन करने की लालसा तेज हो गई, व्याकुल हो गया पर डर भी था कहीं दर्शन करने से न रह जाए| भाग्य जवाब न दे जाए| आखिर वह समय आ पहुंचा, गुरु जी गांव के निकट पहुंच गए| नगरवासी भाग कर स्वागत के लिए आगे जाने लगे, पर उस समय एक माई ने आकर आवाज़ दी-'पुत्र! जल्दी चलो, मेरी पुत्रवधू के पेट में दर्द हो रहा है| उसकी जान बचाओ| उसे उदर-स्फीति हो गई है| गरीब पर दया करो, चलो सतिगुरु तुम्हारा भला करे जल्दी चलो|'

भाई सुजान के आगे मुश्किल खड़ी हो गई, एक तरफ रोगी चिल्ला रहा है| दूसरी तरफ कलगीधर पिता जी आ रहे हैं| गुरु जी के दर्शन करने अवश्य हैं, पर रोगी को भी छोड़ा नहीं जा सकता| यदि माई की पुत्रवधू मर गई तो हत्या का भागी भाई सुजान होगा| उसकी आत्मा ने आवाज़ दी|

भाई सुजान! क्यों दुविधा में पड़े हो? रोगी की सेवा करो, तुम्हें सेवा करने के लिए दाता ने हुक्म किया है| उस प्रीतम का हुक्म है, गुरु परमेश्वर के दर्शन लोक सेवा में है|

उसी समय भाई सुजान दवाईयों का थैला उठा कर माई के घर को चल दिया| लोग उत्तर दिशा की तरफ दौड़े जा रहे थे, भाई सुजान दक्षिण दिशा की तरफ जा रहा था| लोगों को गुरु जी के दर्शन करने की इच्छा थी तथा भाई सुजान को रोगी की हालत देखने की जल्दी थी| लोग गुरु जी के पास पहुंचे तथा भाई सुजान माई के घर पहुंच गया| उसने जा कर माई की पुत्रवधू को देखा, वह सचमुच ही कुछ पल की मेहमान थी| उसने उसे दवाईयां घोल कर पिलाई| वैदिक असूलों के अनुसार देखरेख की हिदायतें दीं, पर पूरा एक घण्टा लग गया| माई की रोगी पुत्रवधू खतरे से बाहर हो गई| उसकी उदर-स्फीति अब धीमी हो गई| पेट का दर्द नरम हो गया| भाई सुजान जी दवाईयां दे कर वापिस मुड़े| जल्दी-जल्दी आए तो क्या देखते हैं कि उनकी झोंपड़ी के आगे लोगों की बहुत भीड़ है| घुड़सवार खड़े हैं, सारा गांव इकट्ठा हुआ है| भाई सुजान भीड़ को चीर कर आगे चले गए| झोंपड़ी के अन्दर जा कर क्या देखते हैं कि नीले पर सवार सच्चे पातशाह गरीब की चटाई पर बैठे हुए छत्त की तरफ देख रहे हैं| जाते ही भाई सुजान सतिगुरु जी के चरण कंवलों पर गिर पड़ा| आंखों में खुशी के आंसू आ गए, चरण पकड़ कर विनती की 'करामाती प्रीतम! दाता कृपा की जो गरीब की झोंपड़ी में पहुंच कर गरीब को दर्शन दिए, मेरे धन्य भाग्य|'

'भाई सुजान निहाल!' सच्चे सतिगुरु जी ने वचन किया| सचमुच तुमने गुरु नानक देव जी की सिक्खी को समझा है| गरीबों की सेवा की हैक यही सच्ची सिक्खी है| उठो! अब श्री आनंदपुर को चलो, हम तुम्हें लेने के लिए आए है|'

गुरु के वचनों को मानना सिक्ख का परम धर्म है| उसी समय उठ कर भाई सुजान गुरु जी के साथ चल पड़ा तथा श्री आनंदपुर पहुंचा| गुरु जी ने आप को अमृत पान करवा कर सिंघ सजा दिया| नाम 'सुजान सिंघ' रखा| लाहौर से परिवार भी बुला लिया| परिवार को भी अमृत पान करवाया गया| सारा परिवार भाई सुजान सिंघ को मिल कर बहुत खुश हुआ| भाई सुजान सिंघ की धर्म पत्नी जिसने कई साल पति की जुदाई सहन की तथा पति के हुक्म में सती के समान रही, उसके हृदय को कौन जान सकता है|

Monday, 21 October 2013

साँई नगरी शिर्डी से बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण

ॐ साँई राम जी  


साँई नगरी शिर्डी से बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण
आज प्रात: काल 06:19 बजे

उत्कण्ठा हो दर्श की
मन श्रध्दा बढ़ जाये
मनोकामना पूर्ण हो
दर्शन शीघ्र कराये

ॐ साँई राम जी

श्री साँई बाबा जी के चरण कमलों में हमारी अरदास है
कि बाबा जी अपनी कृपा दृष्टी आप सभी पर निरंतर बरसाते रहे

जटू तपस्वी - जीवन परिचय

ॐ साँई राम जी


जटू तपस्वी

प्रेम पिआला साध संग शबद सुरति अनहद लिव लाई|
धिआनी चंद चकोर गति अंम्रित द्रिशटि ‌‌‌‌स्रिसटि वरसाइ ||
घनहर चात्रिक मोर जयों अनहद धुनि सुनि पाइल पाई |
चरण कमल मकरंद रस सुख संपट हुइ भवर समाई |
सुख सागर विच मीन होइ गुरमुख चाल न खोज खुजाई |
अपिउ पीअन निझर झरन अजरजरण न अलख लखाई |
वीह इकीह उलंघि कै गुरसिखी गुरमुख फल खाई |
वाहिगुरु वडी वडिआई |८| 



आध्यात्मिक दुनिया में परमात्मा के दर्शन प्राप्त करने के लिए अनेक मार्ग अपनी-अपनी समझ के अनुसार अनेक महां पुरुषों तथा अवतारों ने बताए हैं| जिन को ज्ञान ध्यान, जप ताप आदि नाम दिए जाते हैं| पुण्य, सेवा सिमरन भी है| भारत में ज्ञान पर बहुत जोर रहा है| ज्ञान के बाद ध्यान आया, मूर्ति पूजा के रूप में तथा जप आया मंत्रों के रूप में ग्यारह हजार करोड़ बार किसी मंत्र का जाप कर लेना तथा कहना बस अन्य कुछ करने की जरूरत नहीं समझें कि रिद्धियां-सिद्धियां या करामातें आ गईं| जप का फल प्राप्त करने के बाद अहंकार हो जाता है| उस अहंकार का उपयोग जादू, टोने, मंत्र, लोगों को अपने वश करने में होता रहा| जप के साथ ही योगी लोगों का शरीर जो पंचभूतक का बना है पुरुष का सुन्दर घर| योगी समझते रहे शरीर में जो शक्ति है, उसको निर्मल किया जाए तो मन स्वयं ही काम, क्रोध, मोह की तरफ नहीं भागेगा| भाव कि शारीरिक शक्तियों को कमजोर करते थे|

भारत के योगियों तथा साधुओं की कई सम्प्रदाएं हैं जो तपस्या कर भरोसा रखती थीं| पंजाब में अनेक तपस्वी हुए हैं| उन तपस्वियों में एक जटू तपस्वी था| उसके तप की बहुत चर्चा थी| पर उसकी तपस्या ने उसे न भगवान के निकट किया था तथा न मन को शांति मिली थी|
उस तपस्वी की साखी इस तरह है कि वह करतारपुर (ब्यास) में रहता था तथा तपस्या किया करता था| उसके तप करने का यह ढंग था कि वह अपने चारों तरफ पांच धूनियां जला लेता तथा स्वयं मध्य में बैठा रहता| सर्दी होती या गर्मी वह धूना जला कर तपस्या करता रहता| उसकी तपस्या की बड़ी चर्चा थी|

करतारपुर नगर को पांचवे पातशाह ने आबाद किया था| गुरु की नगरी का नाम प्राप्त हो गया| जब जटू तपस्या करता था, तब सतिगुरु हरिगोबिंद साहिब जी महाराज करतारपुर में विराजमान थे तथा वहां धार्मिक कार्यों के साथ सैनिक कार्य भी होते थे| नित्य शिकार खेले जाते तथा शत्रुओं से मुकाबला करने का प्रशिक्षण दिया जाता| देश की सेवा का भी मनोरथ था|

जटू तपस्वी को प्रभु ज्ञान बता कर उसको शारीरिक कष्ट से मुक्त करने के लिए सतिगुरु जी ने ध्यान किया| तपस्वी की दशा बड़ी दयनीय थी| वह व्याकुल रहता तथा अहंकार और लालच में आ गया था| उसकी मनोवृति ठीक नहीं रहती थी| ऐसी दशा में फंसा होने पर कभी-कभी गुरु घर की निंदा कर देता| उसके मन को फिर भी चैन न आता, क्योंकि शरीर दुखी रहता| पर सतिगुरु जी ऐसे दुखियों के दुःख दूर करते थे| सतिगुरु जी शिकार को जाते हुए तपस्वी के पास पहुंचे, उस समय तपस्वी धूना जला कर तप कर रहा था| उसका ध्यान कहीं ओर था, बैठा कुछ सोच रहा था|

सतिगुरु जी घोड़े पर सवार ही रहे, जटू तपस्वी की तरफ सतिगुरु जी ने कृपा दृष्टि से उसकी आंखों में आंखें डाल कर देखा| कोई चार-पांच मिनट तक देखकर गुरु साहिब जी ने उसके तप तथा भ्रम की शक्ति को खींच लिया तथा वह वचन करके कि-तपस्वी! खीझा न करो| कहो 'सति करतार|' साहिब जी घोड़े को एड़ी लगाकर आगे निकल गए|

सतिगुरु जी के जाने के बाद जटू तपस्वी के दिल-दिमाग में खलल पैदा हो गया| वह स्वयं ही जबरदस्ती कहता गया-तपस्वी खीझा न करो| तपस्वी खीझा न करो| कहो सति करतार, सति करतार|'

यह भी चमत्कार हुआ कि उनकी पांचों धुनियां ठण्डी हो गई| उस की हिम्मत न रही कि वह उठ कर फूंकें भी मार सके, उसने किसी को आवाज़ न दी| आसन में उठ गया, उसने कहा 'सति करतार|'

'सति करतार' कहता हुआ नाचता रहा| उसकी ऐसी दशा हो गई, नाम की ऐसी अंगमी शक्ति आई कि वह सिमरन करने लग गया| वह पागलों के जैसे घूमने लगा तथा बच्चे और साधारण लोग जिन्हें आत्मिक दुनिया का ज्ञान नहीं था, वह व्यंग्य करने लगे| 'तपस्वी खीझा न करो! तपस्वी खीझा न करो|' पर वह क्रोध न करता, बल्कि कहता-कहो भाई! सति करतार|' इस तरह कोई उसे पागल समझने लग पड़ा| उसको गुरु दर्शनों की लिव लग गई| वह दर्शन के लिए तड़पने लगा| उतनी देर में सतिगुरु जी भाग्यवश श्री अमृतसर जी को चले गए|
पीछे से तपस्वी की बैचेनी और बढ़ गई तथा वह 'सति करतार' का सिमरन करता हुआ बिल्कुल पागल हो गया| उसके इर्द-गिर्द के कपड़े फट गए तथा कभी ढंका हुआ और कभी नग्न फिरने लगा| उसकी दशा बिगड़ती गई|

उसको यह ज्ञान हो गया कि सतिगुरु जी श्री अमृतसर को चले गए हैं तो वह ब्यास से पार हो कर पीछे गया तथा अमृतसर पहुंचा|

वह शहर में तथा श्री हरिमंदिर साहिब जी के इर्द-गिर्द घूमता रहा| पर उसे सतिगुरु जी के दरबार में दाखिल होने की आज्ञा न मिली|

'ले आओ|' सतिगुरु जी ने एक दिन हुक्म दिया कि यह गुरमुख है| तपस्वी पहले खीझा रहता था, अब तपता है, नाम अभ्यासी हो गया है|

भाई जटू को सतिगुरु जी के दरबार में हाजिर किया गया| सतिगुरु जी के चरणों में गिर पड़ा तथा बिलख-बिलखकर विनती करने लगा - हे दाता! जैसे पहले कृपा की है अब भी दया करो! सुधबुध रहे, सिमरन करूं|'

सतिगुरु जी ने कृपा करके गुरु-मंत्र प्रदान किया, उसके मन को शांत किया तथा अंतर-आत्मा को ज्ञान कराया| उसको वस्त्र पहनाए तथा गुरु घर में सेवा पर लगाया| उनकी लिव लगी तथा सच्चा प्यार पैदा हो गया| धूनियों का ताप जो अहंकार पैदा करता था, वह समाप्त हो गया|

सतिगुरु नानक देव जी ने सिमरन तथा सिक्खी मार्ग को प्रगट करके कलयुगी जीवों को कल्याण के साधन सिर्फ नाम सिमरन, सच्चा प्यार तथा सेवा ही बताया| वैसे ही भाई गुरदास जी फरमाते हैं कि गुरु घर में प्यार का प्याला मिलता है वह भी अनहद की धुनी बजती है| वह प्यार चांद चकोर जैसा होता है| ध्यान लगा रहता है| सिक्ख को सच्चे प्यार की कृपा होती है, गुरमुखों को ऐसा सुख मिलता है, सतिगुरु की प्रशंसा है|

इसलिए हे जिज्ञासु जनो! नाम का सिमरन करो! धर्म की कमाई तथा सेवा करो| झूठे आडम्बर करके शरीर को कष्ट देने की जरूरत नहीं| सच्ची तपस्या तो नाम सिमरन है|

Saturday, 19 October 2013

बीबी बसन्त लता जी - जीवन परिचय

ॐ श्री साँई राम जी


बीबी बसन्त लता जी

श्री कलगीधर पिता जी की महिमा अपरम्पार है, श्री आनंदपुर में चोजी प्रीतम ने बड़े कौतुक किए| अमृत तैयार करके गीदड़ों को शेर बना दिया| धर्म, स्वाभिमान, विश्वास, देश-भक्ति तथा प्रभु की नई जोत जगाई| सदियों से गुलाम रहने के कारण भारत की नारी निर्बल हो कर सचमुच ही मर्द की गुलाम बन गई तथा मर्द से बहुत डरने लगी| सतिगुरु नानक देव जी ने जैसे स्त्री जाति को समानता तथा सत्कार देने का ऐलान किया था, वैसे सतिगुरु जी ने स्त्री को बलवान बनाने के लिए अमृत पान का हुक्म दिया| अमृत पान करके स्त्रियां सिंघनी बनने लगीं तथा वह अपने धर्म की रक्षा स्वयं करने लगी| उनको पूर्ण ज्ञान हो गया कि धर्म क्या है? अधर्मी पुरुष कैसे नारी को धोखा देते हैं विश्वास के जहाज पार होते हैं|

ऐसी बहुत-सी सहनशील नारियों में से एक बीबी बसन्त लता थी, वह सतिगुरु जी के महल माता साहिब कौन जी के पास रहती और सेवा किया करती थी| नाम बाणी का सिमरन करने के साथ-साथ वह बड़ी बहादुर तथा निडर थी| उसने विवाह नहीं किया था, स्त्री धर्म को संभाल कर रखा था| उसका दिल बड़ा मजबूत और श्रद्धालु था|

बीबी बसन्त लता दिन-रात माता साहिब कौर जी की सेवा में ही जुटी रहती| सेवा करके जीवन व्यतीत करने में ही हर्ष अनुभव करती थी|

माता साहिब कौर जी के पास सेवा करते हुए बसन्त लता जी की आयु सोलह साल की हो गई| किशोर देख कर माता-पिता उसकी शादी करना चाहते थे| पर उसने इंकार कर दिया| अकाल पुरुष ने कुछ अन्य ही चमत्कार दिखाए| श्री आनंदपुर पर पहाड़ी राजाओं और मुगलों की फौजों ने चढ़ाई कर दी| लड़ाई शुरू होने पर खुशी के सारे समागम रुक गए और सभी सिक्ख तन-मन और धन से नगर की रक्षा और गुरु घर की सेवा में जुट गए|

बसन्त लता ने भी पुरुषों की तरह शस्त्र पहन लिए और माता साहिब कौर जी के महल में रहने लगी और पहरा देती| उधर सिक्ख शूरवीर रणभूमि में शत्रुओं से लड़ते शहीद होते गए| बसंत लता का पिता भी लड़ता हुआ शहीद हो गया| इस तरह लड़ाई के अन्धेरे ने सब मंगलाचार दूर किए, बसन्त लता कुंआरी की कुंआरी रही|

जैसे दिन में रात आ जाती है, तूफान शुरू हो जाता है वैसे सतिगुरु जी तथा सिक्ख संगत को श्री आनंदपुर छोड़ना पड़ा, हालात ऐसे हो गए कि और ठहरना असंभव था| पहाड़ी राजाओं तथा मुगल सेनापतियों ने धोखा किया| उन्होंने कुरान तथा गायों की कसमें खाईं मर मुकर गए| प्रभु की रज़ा ऐसे ही होनी थी|

सर्दी की रात, रात भी अन्धेरी| उस समय सतिगुरु जी ने किला खाली करने का हुक्म कर दिया| सब ने घर तथा घर का भारी सामान छोड़ा, माता साहिब कौर तथा माता सुन्दरी जी भी तैयार हुए| उनके साथ ही तैयार हुए तमाम सेवक| कोई पीछे रह कर शत्रुओं की दया पर नहीं रहना चाहता था| अपने सतिगुरु के चरणों पर न्यौछावर होते जाते| बसन्त लता भी माता साहिब कौर के साथ-साथ चलती रही| अपने वीर सिंघों की तरह शस्त्र धारण किए| चण्डी की तरह हौंसला था| वह रात के अन्धेरे में चलती गई| काफिला चलता गया| पर जब अन्धेरे में सिक्ख संगत झुण्ड के रूप में दूर निकली तो शत्रुओं ने सारे प्रण भुला दिए और उन्होंने सिक्ख संगत पर हमला कर दिया| पथ में लड़ाईयां शुरू हो गईं| लड़ते-लड़ते सिक्ख सरसा के किनारे पहुंच गए|

वाहिगुरु ने क्या खेल करना है यह किसी को क्या पता? उस के रंगों, कौतुकों और भाग्यों को केवल वह ही जानता है और कोई नहीं जान सकता| उसी सर्दी की पौष महीने की रात को अंधेरी और बादल आ गए| बादल बहुत जोर का था| आंधी ने राहियों को रास्ता भुला दिया| उधर शत्रुओं ने लड़ाई छेड़ दी सिर्फ बहुमूल्य सामान लूटने के लिए| इस भयानक समय में सतिगुरु जी के सिक्खों ने साहस न छोड़ा तथा सरसा में छलांग लगा दी, पार होने का यत्न किया| चमकती हुई बिजली, वर्षा और सरसा के भयानक बहाव का सामना करते हुए सिंघ-सिंघनियां आगे जाने लगे|

बसन्त लता ने कमरकसा किया हुआ था और एक नंगी तलवार हाथ में ले रखी थी| उस ने पूरी हिम्मत की कि माता साहिब कौर की पालकी के साथ रहे, पर तेज पानी के बहाव ने उसे विलग कर दिया, उन से बह कर विलग हो गई और अन्धेरे में पता ही न लगा किधर को जा रही थी, पीछे शत्रु लगे थे| नदी से पार हुई तो अकेली शत्रुओं के हाथ आ गई| शत्रु उस को पकड़ कर खान समुन्द खान के पास ले गए| उन्होंने बसन्त लता को नवयौवना और सौंदर्य देखकर पहले आग से शरीर को गर्मी पहुंचाई फिर उसे होश में लाया गया| शत्रुओं की नीयत साफ नहीं थी, वह उसे बुरी निगाह से देखने लगे|

समुन्द खान एक छोटे कस्बे का हाकिम था| वह बड़ा ही बदचलन था, किसी से नहीं डरता था और मनमानियां करता था| वह बसन्त लता को अपने साथ अपने किले में ले गया| बसन्त लता की सूरत ऐसी थी जो सहन नहीं होती जाती थी| उसके चेहरे पर लाली चमक रही थी|समुन्द खान को यह भी भ्रम था की शायद बसन्त लता गुरु जी के महलों में से एक थी| जैसे कि मुगल हाकिम और राजा अनेक दासियां बेगमें रखते हैं| उसने बसन्त लता को कहा -'इसका मतलब यह हुआ कि तुम पीर गोबिंद सिंघ की पत्नी नहीं|'

बसन्त लता-'नहीं! मैं एक दासी हूं, माता साहिब कौर जी की सेवा करती रही हूं|'

समुन्द खान-'इस का तात्पर्य यह हुआ कि स्वर्ग की अप्सरा अभी तक कुंआरी है, किसी पुरुष के संग नहीं लगी|'

बसन्त लता-'मैंने प्रतिज्ञा की है कुंआरी रहने और मरने की| मैंने शादी नहीं करवानी और न किसी पुरुष की सेविका बनना है| मेरे सतिगुरु मेरी सहायता करेंगे| मेरे धर्म को अट्टल रखेंगे| जीवन भर प्रतिज्ञा का पालन करूंगी|'

समुन्द खान-'ऐसी प्रतिज्ञा औरत को कभी भी नहीं करनी चाहिए| दूसरा तुम्हारा गुरु तो मारा गया| उसके पुत्र भी मारे गए| कोई शक्ति नहीं रही, तुम्हारी सहायता कौन करेगा?'

बसन्त लता-'यह झूठ है| गुरु महाराज जी नहीं मारे जा सकते| वह तो हर जगह अपने सिक्ख की सहायता करते हैं| वह तो घट-घट की जानते हैं, दुखियों की खबर लेते हैं| उन को कौन मारने वाला है| वह तो स्वयं अकाल पुरुष हैं| तुम झूठ बोलते हो, वह नहीं मरे|'

समुन्द खान-'हठ न करो| सुनो मैं तुम्हें अपनी बेगम बना कर रखूंगा, दुनिया के तमाम सुख दूंगा| तुम्हारे रूप पर मुझे रहम आता है| मेरा कहना मानो, हठ न करो, तुम्हारे जैसी सुन्दरी मुगल घरानों में ही शोभा देती है| मेरी बात मान जाओ|'

बसन्त लता-'नहीं! मैं भूखी मर जाऊंगी, मेरे टुकड़े-टुकड़े कर दो, जो प्रतिज्ञा की है वह नहीं तोड़ूंगी| धर्म जान से भी प्यारा है| सतिगुरु जी को क्या मुंह दिखाऊंगी, यदि मैं इस प्रतिज्ञा को तोड़ दूं?'

समुन्द खान-'अगर मेरी बात न मानी तो याद रखो तुम्हें कष्ट मिलेंगे| उल्टा लटका कर चमड़ी उधेड़ दूंगा| कोई तुम्हारा रक्षक नहीं बनेगा, तुम मर जाओगी|'

बसन्त लता-'धर्म के बदले मरने और कष्ट सहने की शिक्षा मुझे श्री आनंदपुर से मिली थी| मेरे लिए कष्ट कोई नया नहीं|'

समुन्द खान-'मैं तुम्हें बन्दीखाने में फैकूंगा| क्या समझती हो अपने आप को, अन्धेरे में भूखी रहोगी तो होश टिकाने आ जाएंगे|'

बसन्त लता-'गुरु रक्षक|'

समुन्द खान ने जब देखा कि यह हठ नहीं छोड़ती तो उसने भी अपने हठ से काम लिया| उसको बंदीखाने में बंद कर दिया| उसके अहलकार उसे रोकते रहे| किसी ने भी सलाह न दी कि बसन्त लता जैसी स्त्री को वह बन्दीखाने में न डाले| मगर वह न माना, बसन्त लता को बन्दीखाने में डाल ही दिया| परन्तु बसन्त लता का रक्षक सतिगुरु था| गुरु जी का हुक्म भी है:

राखनहारे राखहु आपि || सरब सुखा प्रभ तुमरै हाथि ||



बसन्त लता को बन्दीखाने में फैंक दिया गया| बन्दीखाना नरक के रूप में था, जिस में चूहे, सैलाब मच्छर इत्यादि थे| मौत जैसा अंधेरा रहता| किसी मनुष्य के माथे न लगा जाता| ऐसे बन्दीखाने में बसन्त लता को फैंक दिया गया| पर उसने कोई दुःख का ख्याल न किया|
वाह! भगवान के रंग पहली रात बसन्त लता के सिर उस बन्दीखाने में आई| दुश्मन पास न रहे| उसे अन्धेरे में अकेली बैठी हुई को अपना ख्याल भूल गया पर सतिगुरु जी वह सतिगुरु जी के परिवार का ख्याल आ गया| आनंदपुर की चहल-पहल, उदासी, त्याग तथा सरसा किनारे अन्धेरे में भयानक लड़ाई की झांकियां आंखों के आगे आईं उसका सुडौल तन कांप उठा| सिंघों का माता साहिब कौर की पालकी उठा कर दौड़ना तथा बसन्त लता का गिर पड़ना उसको ऐसा प्रतीत हुआ कि वह बन्दीखाने में नहीं अपितु सरसा के किनारे है, उसके संगी साथी उससे बिछुड़ रहे हैं| वह चीखें मार उठी-'माता जी! प्यारी माता जी! मुझे यहां छोड़ चले हो, किधर जाओगे? मैं कहां आ कर मिलूं? आपके बिना जीवित नहीं रह सकती, गुरु जी के दर्शन कब होंगे? माता जी! मुझे छोड़ कर न जाओ! तरंग के बहाव में बही हुई बसन्त लता इस तरह चिल्लाती हुई भाग कर आगे होने लगी तो बन्दीखाने की भारी पथरीली दीवार से उसका माथा टकराया| उसको होश आई, वह सरसा किनारे नहीं बल्कि बंदिखाने में है, वह स्वतंत्र नहीं, कैदी है| उफ! मैं कहां हूं? उसके मुंह से निकला|

पालथी मार कर नीचे बैठ गई तथा दोनों हाथ जोड़ कर सतिगुरु जी के चरणों का ध्यान किया| अरदास विनती इस तरह करने लगी- 'हे सच्चे पातशाह! कलयुग को तारने वाले, पतित पावन, दयालु पिता! मुझ दासी को तुम्हारा ही सहारा है| तुम्हारी अनजान पुत्री ने भोलेपन में प्रण कर लिया था कि तुम्हारे चरणों में जीवन व्यतीत करूंगी| माता जी की सेवा करती रहूंगी| गुरु घर के जूठे बर्तन मांज कर संगतों के जूते साफ कर जन्म सफल करूंगी.....दाता! तुम्हारे खेल का तुम्हें ही पता है| मैं अनजान हूं कुछ नहीं जानती, क्या खेल रचा दिया| सारे बिछुड़ गए, आप भी दूर चले गए| मैं बन्दीखाने में हूं, मेरा रूप तथा जवानी मेरे दुश्मन बन रहे हैं| हे दाता! दया करो, कृपा करो, दासी की रक्षा कीजिए| दासी की पवित्रता को बचाओ| यदि मेरा धर्म चला गया तो मैं मर जाऊंगी, नरक में वास होगा| मुझे कष्ट के पंजे में से बचाओ| द्रौपदी की तरह तुम्हारा ही सहारा है, हे जगत के रक्षक दीन दयालु प्रभु!

'राखनहारे राखहु आपि || सरब सुखा प्रभ तुमरै हाथि ||'

विनती खत्म नहीं हुई थी कि बन्दीखाने में दीये का प्रकाश उज्ज्वल हुआ| प्रकाश देख कर उसने पीछे मुड़ कर देखा तो एक अधेड़ उम्र की स्त्री बन्दीखाने के दरवाजे में खड़ी थी|

आने वाली स्त्री ने आगे हो कर बड़े प्यार, मीठे तथा हंसी वाले लहजे में बसन्त लता को कहना शुरू किया-

पुत्री! मैं हिन्दू हूं, तुम्हारे लिए रोटी पका कर लाई हूं, नवाब के हुक्म से पकाई है| रोटी खा लो बहुत पवित्र भोजन है|'

बसन्त लता-'मुझे तो भूख नहीं|'

स्त्री-'पुत्री! पेट से दुश्मनी नहीं करनी चाहिए| यदि सिर पर मुसीबत पड़ी है तो क्या डर, भगवान दूर कर देगा| यदि दुखों का सामना करना भी पड़े तो तन्दरुस्त शरीर ही कर सकता है| रोटी तन्दरुस्त रखती है, जो भाग्य में लिखा है, सो करना तथा खान पड़ता है, तुम समझदार हो|'
बसन्त लता-'रोटी से ज्यादा मुझे बन्दीखाने में से निकाल दो तो अच्छा है, मैंने तुर्कों के हाथ का नहीं खाना, मरना स्वीकार, जाओ! तुम से भी मुझे डर लग रहा है, खतरनाक डर, मैंने कुछ नहीं खाना, मैं कहती हूं मैंने कुछ नहीं खाना|'

स्त्री-'यह मेरे वश की बात नहीं| खान के हुक्म के बिना इस किले में पत्ता भी नहीं हिल सकता| हां, खान साहिब दिल के इतने बुरे नहीं है, अच्छे हैं, जरा जवान होने के कारण रंगीले जरूर हैं| वह तुम्हारे रूप के दीवाने बने हुए हैं| मैं हिन्दू हूं, चन्द्रप्रभा मेरा नाम है| डरो मत, रोटी खा लो|'

बसन्त लता-'क्या सबूत है कि तुम हिन्दू हो?'

स्त्री-'राम राम, क्या मैं झूठ बोलती हूं| मेरा पुत्र खान साहिब के पास नौकर है| हम हिन्दू हैं| यह हिन्दुओं को बहुत प्यार करते हैं, अच्छे हैं|'

बसन्त लता-'पर मुझे तो कैद कर रखा है, यह झूठ है?'

स्त्री-'मैं क्या बताऊं, यह मन के बड़े चंचल हैं| तुम्हारे रूप पर मोहित हो गए हैं| वह इतने मदहोश हुए हैं कि उन को खाना-पीना भी भूल गया| कुछ नहीं खाते-पीते, बस तुम्हारा फिक्र है|'

बसन्त लता-'इसका मतलब है कि वह मुझे....|'

स्त्री-(बसन्त लता की बात टोक कर) नहीं, नहीं! डरने की कोई जरूरत नहीं, वह तुम्हारे साथ अन्याय नहीं करेंगे| समझाऊंगी मेरी वह मानते हैं, तुम्हारे साथ जबरदस्ती नहीं करेंगे| यदि तुम्हारी मर्जी न हो तो वह तुम्हारे शरीर को भी हाथ नहीं लगाएंगे| बहुत अच्छे हैं, यूं डर कर शरीर का रक्त मत सुखाओ|

बसन्त लता-'माई तुम्हारी बातें अच्छी नहीं, तुम जरूर....|'

स्त्री-'राम राम कहो पुत्री| तुम्हारे साथ मैंने कोई धोखा करना है, फिर तुम्हारा मेरा धर्म एक, रोटी खाओ| राम का नाम लो| जो सिर पर बनेगी सहना, मगर भूखी न मरो| भूखा मरना ठीक नहीं|'

चन्द्रप्रभा की प्रेरणा करने और सौगन्ध खाने पर बसन्त लता ने भोजन कर लिया| वह कई दिनों की भूखी थी, खाना खा कर पानी पिया और सतिगुरु महाराज का धन्यवाद किया| 

वह दिन बीत गया तथा अगला दिन आया| समुन्द खान की रात बड़ी मुश्किल से निकली, दिन निकलना कठिन हो गया| वह बंदीखाने में गया तथा उसने जा कर बसन्त लता को देखा|

बसन्त लता उस समय अपने सतिगुरु जी का ध्यान लगा कर विनती कर रही थी| जब समुन्द खान ने आवाज़ दी तो वह उठ कर दीवार के साथ लग कर खड़ी हो गई तथा उसकी तरफ ऐसे देखने लगी, जिस तरह भूखी शेरनी किसी शिकार की तरफ देखती है कि शिकारी के वार करने से पहले वह उस पर ऐसा वार करे कि उसकी आंतड़ियों को बाहर खींच ले, पर वह खड़ी हो कर देखने लगी कि समुन्द खान क्या कहता है|

'बसन्त लता!' समुन्द खान बोला| 'यह ठीक है कि तेरा मेरा धर्म नहीं मिलता, मगर स्त्री-पुरुष का कुदरती धर्म तो है| तुम्हारे पास जवानी है, यह जवानी ऐसे ही व्यर्थ मत गंवा| आराम से रहो| तुम्हारे साथी नहीं रहे| उनको लश्कर ने चुन-चुन कर मार दिया है| तुम्हारा गुरू........|'

पहले तो बसन्त लता सुनती रही| मगर जब समुन्द खान के मुंह से 'गुरु' शब्द निकला तो वह शेरनी की तरह गर्ज कर बोली, 'देखना! पापी मत बनना! मेरे सतिगुरु के बारे में कोई अपशब्द मत बोलना, सतिगुरु सदा ही जागता है, वह मेरे अंग-संग है|'

मैं नहीं जानता तुम्हारे गुरु को| जो खबरें मिली हैं, वह बताती हैं कि गुरु सब खत्म..... कोई नहीं बचा| सारा इलाका सिक्खों से खाली है| मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता| तेरे रूप का दीवाना हो गया हूं| कहना मानो.....अगर अब मेरे साथ खुशी से न बोली तो समझना-मैं बलपूर्वक उठा लूंगा|

ज़ालिम दुश्मन के मुंह से ऐसे वचन सुन कर बसन्त लता भयभीत नहीं हुई| उसको अपने सतिगुरु महाराज की अपार शक्ति पर मान था| उसने कहा-'मैं लाख बार कह चुकी हूं मैं मर जाऊंगी, पर किसी पुरुष की संगत नहीं करनी| मेरा सतिगुरु मेरी रक्षा करेगा| मेरे साथ जबरदस्ती करने का जो यत्न करेगा, वह मरेगा.....मैं चण्डी हूं| मेरी पवित्रता का रक्षक भगवान है| वाहिगुरु! सतिगुरु!'

पिछले शब्द बसन्त लता ने इतने जोर से कहे कि बन्दीखाना गूंज उठा| एक नहीं कई आवाज़ें पैदा हुईं| यह आवाज़ें सुन कर भी समुन्द खान को बुद्धि न आई| वह तो पागल हो चुका था| वासना ने उसको अंधा कर दिया था|

'मैं कहता हूं, कहना मान जाओ! तेरी रक्षा कोई नहीं कर सकता तुम मेरे....!' यह कह कर वह आगे बढ़ा और उसने बसन्त लता को बांहों में लेने के लिए बांहें फैलाई तो उसकी एक बांह में पीड़ा हुई| उसी समय बसन्त लता पुकार उठी-

'ज़ालिम! पीछे हट जा! वह देख, मेरे सतिगुरु जी आ गए| आ गए!' बसन्त लता को सीढ़ियों में रोशनी नजर आई| बसन्त लता के इशारे पर समुन्द खान ने पीछे मुड़ कर देखा तो उस को कुछ नजर न आया| उस ने दुबारा बसन्त लता को कहा-'ऐसा लगता है कि तुम पागल हो गई हो| डरो मत, केवल फिर मेरे साथ चल, नहीं तो.....|'

'अब मैं क्यों तेरी बात मानूं? मेरे सतिगुरु जी आ गए हैं, मेरी सहायता कर रहे हैं|' बसन्त लता ने उत्तर दिया|

'देखो! महाराज देखो! यह ज़ालिम नहीं समझता, इसको सद्-बुद्धि दो, इसको पकड़ो, धन्य हो मेरे सतिगुरु! आप बन्दीखाने में दासी की पुकार सुन कर आए|'

समुन्द खान आगे बढ़ने लगा तो उसके पैर धरती से जुड़ गए, बाहें अकड़ गई, उसको इस तरह प्रतीत होने लगा जैसे वह शिला पत्थर हो रही थी| उस के कानों में कोई कह रहा था -

'इस देवी को बहन कह, अगर बचना है तो कह बहन|'

अद्भुत चमत्कार था, उधर बसन्त लता दूर हो कर नीचे पालथी मार कर दोनों हाथ जोड़ कर कहने लगी, 'सच्चे पातशाह! आप धन्य हो तथा मैं आप से बलिहारी जाती हूं| सतिनाम! वाहिगुरु हे दाता! आप ही तो अबला की लाज रखने वाले हो, दातार हो|'

समुन्द खान घबरा गया उसको इस तरह अनुभव हुआ जैसे कोई अगोचर शक्ति उसके सिर में जूते मार रही थी| उसकी आंखों के आगे मौत आ गई तथा वह डर गया| उसके मुंह से निकला, 'हे खुदा! मुझे क्षमा करें, कृपा करो! मैं कहता हूं, बहन लता-बहन बसन्त लता!'

यह कहने की देर थी कि उसके सिर पर लगने वाले जूते रुक गए| एक बाजू हिली तो उसने फिर विनती की-हे खुदा! हे सतिगुरु जी आनंदपुर वाले सतिगुरु जी कृपा करो! मैं आगे से ऐसी भूल कदापि नहीं करूंगा, बसन्त लता मेरी बहन है| बहन ही समझूंगा, जहां कहेगी भेज दूंगा| मैं कान पकड़ता हूं|' इस तरह कहते हुए जैसे ही उसने कानों की तरफ हाथ बढ़ाए तो वह बढ़ गए| उसकी बांह खुल गई तथा पैर भी हिल गए| उसका शरीर उसको हल्का-हल्का-सा महसूस होने लगा| उसने आगे बढ़ कर बसन्त लता के पैरों, पर हाथ रख दिया तथा कहा -

'बहन! मुझे माफ करो, मैं पागल हो गया था, तुम्हारा विश्वास ठीक है| तुम पाक दामन हो, मुझे क्षमा करो|'

'सतिगुरु की कृपा है, मैं कौन हूं, सतिगुरु जी ही तुम्हें क्षमा करेंगे| मैं बलिहारी जाऊं सच्चे सतिगुरु से| बसन्त लता ने उत्तर दिया तथा उठ कर खड़ी हो गई| समुन्द खान बसन्त लता को बहन बना कर बन्दीखाने में से बाहर ले आया तथा हरमों में ले जा कर बेगमों को कहने लगा-'यह मेरी बहन है|'

बसन्त लता का बड़ा आदर सत्कार हुआ, उसको देवी समझा गया| कोई दैवी शक्ति वाली पाकदामन स्त्री तथा उसको बड़ी शान से अपने किले से विदा किया, घुड़सवार साथ भेजे| वस्त्र तथा नकद रुपए दिए| उसी तरह जैसे एक भाई अपनी सगी बहन को देकर भेजता है| चंद्र प्रभा भी उसके साथ चल पड़ी तथा रास्ते में पूछते हुए 'सतिगुरु जी, किधर को गए|' वह चलते गए आखिर दीने के मुकाम पर पहुंचे जहां सतिगुरु जी रुके थे| सतिगुरु जी के महल माता सुंदरी जी तथा साहिब देवां जी भी घूमते-फिरते पहुंच गए|

बसन्त लता ने जैसे ही सतिगुरु जी के दर्शन किए तो भाग कर चरणों पर गिर पड़ी| चरणों का स्पर्श प्राप्त किया| आंखों में से श्रद्धा के आंसू गिरे| दाता से प्यार लिया|