ईश्वरीय अवतार का ध्येय साधुजनों का परित्राण और दुष्टों को संहार करना है ! परन्तु संतो का कार्य तो सर्वथा अलग ही है ! संतो के लिए साधू और दुष्ट प्राय: एक ही समान है ! यथार्थ में उन्हें दुष्कर्म करने वालो क़ि प्रथम चिंता होती है और वे परिचित पथ पर लगा देते है ! वे भवसागर के कष्टों को सोखने के लिए के लिए अग्सत्य के सदृश है और अज्ञान तथा अंधकार का नाश करने के लिए सूर्ये के समान है ! संतो के हृदये में भगवन वासुदेव निवास करते है ! वे उनसे प्रथक नहीं है ! श्री साईं भी उसी कोटि में है, जो क़ि भक्तो के कल्याण के निमित ही अवतीर्ण हुए है !वे ज्ञान ज्योति स्वरुप थे ! भक्तों के लिए उन्होंने अपना दिव्य गुन्स्मूह पूर्णत: प्रयोग किया और सदेव उनकी सहायता के लिए तत्पर रहे ! उनकी इच्छा के बिना कोई भक्त उनके पास नहीं जा सकता था ! यदि उनके सुभ कर्म उदित नहीं हुए है तो उन्हें बाबा क़ि स्मृति भी कभी नहीं आई और न ही उनकी लीलाएं उनके कानो तक पहुच सकी ! तब फिर बाबा के दर्शनों का विचार भी उनके मन में कैसी आ सकता था, अनेक व्यक्तियों क़ि श्री साईं बाबा के दर्शन क़ि इच्छा होते हुए भी उन्हें बाबा के महासम्धि लेने तक कोई योग प्राप्त न हो सका ! अत: ऐसे व्यक्ति जो दर्शनलाभ से वंचित रहे है, यदि वे श्रधापुर्वक साईं लीलाओं का श्रवण करेंगे तो उनकी साईं दर्शन क़ि इच्छा कुछ अंशो तक तृप्त हो जाएगी ! भाग्यवश यदि किसी को किसी प्रकार बाबा के दर्शन हो भी गए तो वह वहां अधिक देर तक रुक न सका, इच्छा होते हुए भी केवल बाबा क़ि आज्ञा तक ही वहां रुकना संभव था और आज्ञा होते ही स्थान छोड़ देना आवश्यक हो जाता था ! अत: यह सब उनकी शुभ इच्छा पैर ही अवलंबित था !
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